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________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन वर्तमान युग में समाज के आर्थिक क्षेत्र में भ्रष्टाचार की जो बुराई पनप रही है, उसके मूल में भी या तो व्यक्ति की संग्रहेच्छा है या भोगेच्छा । भ्रष्टाचार केवल अभावजनित बीमारी नहीं है, वरन् वह एक मानसिक बीमारी है जिसके मूल में संग्रहेच्छा एवं भोगेच्छा के कीटाणु हैं । यह बीमारी आवश्यकताओं के कारण नहीं, वरन् तृष्णा से उत्पन्न होती है । आवश्यकताओं की पूर्ति पदार्थ उपलब्ध करके की जा सकती है, लेकिन तृष्णा का निराकरण पदार्थों के द्वारा सम्भव नहीं है । इसीलिए जैन दर्शन ने अनासक्ति की वृत्ति को नैतिक जीवन में प्रमुख स्थान दिया है । तृष्णाजनित विकृतियाँ केवल अनासक्ति से ही दूर की जा सकती है । वर्तमान युग की प्रमुख कठिनाई यह नहीं है कि हमें जीने के साधन उपलब्ध नहीं है, अथवा उनका अभाव है । कठिनाई यह है कि आज का मानव तृष्णा से इतना अधिक ग्रसित है कि वह एक अच्छा सुखद एवं शान्तिपूर्ण जीवन जो नहीं सकता है । वासनाएँ ही अच्छा जीवन जीने में बाधक हैं । ५०२ ३. वैचारिक वैषम्य - विभिन्न वाद और उनके कारण उत्पन्न वैचारिक विषमता सामाजिक जीवन का एक बड़ा अभिशाप है । वर्तमान युग में राष्ट्रों के संघर्ष के मूल में आर्थिक और राजनैतिक प्रश्न इतना महत्त्वपूर्ण नहीं है, जितना कि वैचारिक साम्राज्यवाद की स्थापना । आज न तो राजनैतिक अधिकार - लिप्सा से उत्पन्न साम्राज्यवाद की भावना पाई जाती है और न आर्थिक साम्राज्यों की स्थापना का प्रश्न इतना महत्त्वपूर्ण है, वरन् बड़े राष्ट्र अपने वैचारिक साम्राज्यों की स्थापना के लिए प्रयत्नशील देखे जाते हैं । जैन आचार-दर्शन अनेकांतवाद और अनाग्रह के सिद्धान्त के आधार पर इस वैचारिक विषमता का निराकरण प्रस्तुत करता है । अनेकांत का सिद्धान्त वैचारिक आग्रह के विसर्जन की बात करता है और वैचारिक क्षेत्र में दूसरे के विचारों एवं अनुभूतियों को भी उतना ही महत्त्व देता है जितना कि स्वयं के विचारों एवं अनुभूतियों को । उपर्युक्त तीनों प्रकार की विषमताएँ हमारे सामाजिक जीवन से संबंधित हैं । जैन आचार-दर्शन इन तीनों विषमताओं के निराकरण के लिए अपने आचार-दर्शन में तीन सिद्धान्त प्रस्तुत करता है । सामाजिक विषमता के निराकरण के लिए उसने अहिंसा का सिद्धान्त प्रस्तुत किया । आर्थिक विषमता के निराकरण के लिए वह अपरिग्रह का सिद्धान्त प्रस्तुत करता है । इसी प्रकार बौद्धिक एवं वैचारिक विषमता के निराकरण के लिए अनाग्रह और अनेकान्त के सिद्धान्त प्रस्तुत किये गये । ये सभी नैतिकता के बाह्य एवं सामाजिक आधार हैं । नैतिकता का आन्तरिक आधार तो हमारा मनोजगत् ही है । जैन आचार - दर्शन मानसिक विषमता के निराकरण के लिए भी विशेष रूप से विचार करता है । ४. मानसिक वैषम्य - मानसिक विषमता मनोजगत् में तनाव की अवस्था की सूचक है । जैन आचार- दर्शन ने चतुविध कषायों को मनोजगत् के वैषम्य का मूल कारण माना Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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