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उपसंहार
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जायेंगे, सम्पत्ति का विसर्जन होगा, तो गरीबी अपने आप दूर हो जाएगी। वस्तुतः आवश्यकता इस बात की है कि व्यक्ति में परिग्रह के विसर्जन की भावना उद्भूत हो । परिग्रह के विसर्जन से ही आर्थिक वैषम्य समाप्त हो सकता है । जब तक संग्रह की वृत्ति समाप्त नहीं होती, आर्थिक समानता नहीं आ सकती।
__ आर्थिक वैषम्य का निराकरण असंग्रह की वृत्ति से ही सम्भव है और जैन-दर्शन अपरिग्रह के सिद्धान्त के द्वारा इस आर्थिक वैषम्य के निराकरण का प्रयास करता है। जैन आचार-दर्शन में गृहस्थ-जीवन के लिए भी जिस परिग्रह के सीमांकन का विधान है, वह आर्थिक वैषम्य के निराकरण का एक प्रमुख साधन हो सकता है। आज हम जिस समाजवाद एवं साम्यवाद की चर्चा करते हैं, उसका दिशा-संकेत महावीर ने व्रतव्यवस्था में किया था।
आर्थिक विषमता का निराकरण अनासक्ति और अपरिग्रह की साधना के द्वारा ही सम्भव है। यदि हम सामाजिक जीवन में आर्थिक समानता लाना चाहते हैं तो हमें व्यक्तिगत सम्पत्ति की सीमा निर्धारित करनी ही होगी। परिग्रह का विसर्जन ही आर्थिक जीवन में समत्व का सृजन कर सकता है । जैन दर्शन का अपरिग्रह सिद्धान्त इस सम्बन्ध में पर्याप्त सहायक है। वर्तमान युग में मार्क्स ने आर्थिक विषमता को दूर करने का जो सिद्धान्त साम्यवादी समाज की रचना के रूप में प्रस्तुत किया, वह यद्यपि आर्थिक विषमताओं के निराकरण का एक महत्त्वपूर्ण साधन है, लेकिन उसकी मूलभूत कमी यह है कि वह मानव-समाज पर ऊपर से थोपा जाता है, उसके अन्तर से सहज उभारा नहीं जाता है। जिस प्रकार बाह्य दबावों से वास्तविक नैतिकता प्रकट नहीं होती, उसी प्रकार केवल कानून के बल पर लाया गया आर्थिक साम्य सच्चे आर्थिक समत्व का प्रकटन नहीं करता है । आवश्यक यह है कि मनुष्य में स्वतः ही त्यागवृत्ति का उदय हो
और वह स्वेच्छा से सम्पत्ति-विसर्जन की दिशा में आगे बढ़े। भारतीय परम्परा और विशेषकर जैन परम्परा न केवल सम्पत्ति के विसर्जन की बात करती है, वरन् उसके समवितरण पर भी जोर देती है । हमारे प्राचीन साहित्य में दान के स्थान पर संविभाग शब्द का ही अधिक प्रयोग हुआ है। इससे स्पष्ट है कि जो कुछ हमारे पास है उ सका समविभाजन आवश्यक है। महावीर का यह उद्घोष कि 'असंविभागी न हु तस्स मोक्खं' यह स्पष्ट बताता है कि जैन आचार-दर्शन आर्थिक विषमता के निराकरण के लिए समवितरण की धारणा को प्रतिपादित करता है । जैन-दर्शन के इन सिद्धान्तों को यदि उन्हें युगीन सन्दर्भो में नवीन दृष्टि से उपस्थित किया जाय तो समाज की आर्थिक समस्याओं का निराकरण खोजा जा सकता है ।
१. जैन प्रकाश, ८ अप्रैल, १९६९, पृ० ११ ।
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