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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन अशुद्ध बनाता है। दूसरी ओर यही राग जब स्व-केन्द्रित होता है तो अहं या मान का प्रत्यय उत्पन्न करता है, जिसके कारण सामाजिक जीवन में ऊँच-नीच भावनाओं का निर्माण होता है। इस प्रकार राग का तत्त्व ही मान के रूप में एक दूसरी दिशा ग्रहण कर लेता है जिससे सामाजिक विषमता उत्पन्न होती है। राग की वृत्ति ही संग्रह (लोभ) और कपट की भावनाओं को विकसित करती है। इस प्रकार सामाजिक विषमता के उत्पन्न होने के चार मूल-भूत कारण हैं-१. संग्रह, २. आवेश ३. गर्व (बड़ा मानना) और ४. माया (छिपाना) जिन्हें जैन परम्परा में चार कषाय कहते हैं । यही चारों कारण अलग-अलग रूप में सामाजिक जीवन में विषमता, संघर्ष एवं अशान्ति के कारण बनते हैं । १. संग्रह की मनोवृत्ति के कारण शोषण, अप्रामाणिकता, निरपेक्ष-व्यवहार, क्रूर-व्यवहार, विश्वासघात आदि विकसित होते हैं। २ आवेश की मनोवृत्ति के कारण संघर्ष, युद्ध, आक्रमण एवं हत्याएँ आदि होती हैं । ३. वर्ग की मनोवृत्ति के कारण घृणा, अमैत्रीपूर्ण व्यवहार और क्रूर व्यवहार होता है । इसी प्रकार माया की मनोवृत्ति के कारण अविश्वास एवं अमैत्रीपूर्ण व्यवहार उत्पन्न होता है।' जैन दर्शन इन्हीं कषायों के निरोध को नैतिक साधना का आधार बनाता है । अतः यह कहना उचित ही होगा कि जैन दर्शन साधना मार्ग के रूप में सामाजिक विषमताओं को समाप्त कर सामाजिक समत्व की स्थापना का प्रयत्न करता है ।
२. आर्थिक वैषम्य-आर्थिक वैषम्य व्यक्ति और भौतिक जगत् के सम्बन्धों से उत्पन्न विषमता है। चेतना का जब भौतिक जगत् से सम्बन्ध होता है तो उसे अनेक वस्तुएँ अपने प्राणमय जीवन के लिए आवश्यक प्रतीत होती है। यही आवश्यकता जब आसक्ति में बदल जाती है तो एक ओर संग्रह होता जाता है, दूसरी ओर संग्रह की लालसा बढ़ती जाती है । इसी से सामाजिक जीवन में आर्थिक विषमता का बीज पड़ता है । एक ओर संग्रह बढ़ता है तो दूसरी ओर गरीबी बढ़ती है । परिणामस्वरूप आर्थिक विषमता बढ़ती जाती है।
आर्थिक वैषम्य के मूल में संग्रह-भावना ही अधिक है। यह कहा जाता है कि अभाव के कारण संग्रह की चाह उत्पन्न होती है, लेकिन वस्तुस्थिति कुछ और ही है । स्वाभाविक अभाव की पूर्ति सम्भव है और शायद विज्ञान हमें इस दिशा में सहयोग भी दे सकता है, लेकिन कृत्रिम अभाव की पूर्ति सम्भव नहीं। उपाध्याय अमरमुनिजी लिखते हैं, 'गरीबी स्वयं में कोई समस्या नहीं, किन्तु अमीरी ने उसे समस्या बना दिया है। गड्ढा स्वयं में कोई बहुत चीज नहीं, किन्तु पहाड़ों की असीम ऊँचाइयों ने इस धरती पर जगह-जगह गड्ढे पैदा कर दिये हैं। पहाड़ टूटेंगे, तो गड्ढे अपने आप भर
१. देखिए नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ० १
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