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________________ उपसंहार ४९९ हो, स्वार्थ भावना से ऊपर नहीं उठने देता। स्वार्थ-वृत्ति चाहे वह परिवार के प्रति हो या राष्ट्र के प्रति, समान रूप से नैतिकता की विरोधी सिद्ध होती है। उसके होते हुए सच्चा नैतिक जीवन फलित नहीं हो सकता। मुनि नथमलजी लिखते हैं कि “परिवार के प्रति ममत्व का सघन रूप जैसे जाति या राष्ट्र के प्रति बरती जाने वाली अनैतिकता का नियमन नहीं करता वैसे ही जाति या राष्ट्र के प्रति ममत्व राष्ट्रों के प्रति बरती जाने वाली अनैतिकता का नियामक नहीं होता । लगता है कि राष्ट्रीय अनैतिकता की अपेक्षा अन्तर्राष्ट्रीय अनैतिकता कहीं अधिक है। जिन राष्ट्रों में व्यावहारिक सच्चाई है, प्रामाणिकता है, वे भी अन्तर्राष्ट्रीय क्षेत्र में सत्य-निष्ठ और प्रामाणिक नहीं है।' इस प्रकार हम देखते हैं कि व्यक्ति का जीवन जब तक राग या ममत्व से ऊपर नहीं उठता, तब तक नैतिकता का सद्भाव सम्भव ही नहीं होता। रागयुक्त नैतिकता चाहे उसका आधार राष्ट्र अथवा मानव जाति हो क्यों न हो, सच्चे अर्थों में नैतिकता नहीं है । सच्चा नैतिक जीवन वीतराग अवस्था में ही सम्भव है और जैन आचार-दर्शन इसी वीतराग जीवन दृष्टि को ही नैतिक साधना का आधार बनाता है। यही एक ऐसा मावार है जिस पर नैतिकता खड़ी की जा सकती है और सामाजिक जीवन के वैषम्यों को समाप्त किया जा सकता है। दूसरे, इन सामाजिक सम्बन्धों में व्यक्ति का अहम्भाव भी बहुत महत्त्वपूर्ण रूप से कार्य करता है । शासन की इच्छा या आधिपत्य की भावना इसके प्रमुख तत्त्व हैं । इनके कारण भी सामाजिक जीवन में विषमता उत्पन्न होती है । शासक और शासित अथवा जातिभेद एवं रंगभेद आदि की श्रेष्ठता के मूल में यही कारण है। वर्तमान युग में बड़े राष्ट्रों में जो अपने प्रभावक क्षेत्र बनाने की प्रवृत्ति है उसके मूल में भी अपने राष्ट्रीय अहं की पुष्टि का प्रयत्न है। स्वतंत्रता के अपहार का प्रश्न इसी स्थिति में उठता है । जब व्यक्ति में आधिपत्य की वृत्ति या शासन की भावना होती है तो वह दूसरे के अधिकारों का हनन करता है। जैन आचार-दर्शन अहं के प्रत्यय के विगलन के द्वारा सामाजिक जीवन में परतंत्रता को समाप्त करता है। दूसरी ओर जैन-दर्शन का अहिंसा सिद्धान्त भी सभी प्राणियों के समान अधिकार को स्वीकार करता है । अधिकारों का हनन एक प्रकार की हिंसा है। अतः अहिंसा का सिद्धान्त स्वतंत्रता के साथ जुड़ा हुआ है । जैन एवं बौद्ध आचारदर्शन इसी अहिंसा-सिद्धान्त के आधार पर स्वतंत्रता का समर्थन करते हैं। यदि सामाजिक सम्बन्धों में उत्पन्न होने वाली विषमता के कारणों का विश्लेषण किया जाय तो ज्ञात होगा कि उसके मूल में राग ही है । यही राग जब जीवन पर केन्द्रित होता है तो अपने और पराये के भेद उत्पन्न कर सामाजिक सम्बन्धों को १. नैतिकता का गुरुत्वाकर्षण, पृ० ३-४ । .. . . . । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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