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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन समकालीन परिस्थितियों में जैन आचार दर्शन का मूल्यांकन .... जैन आचार-दर्शन ने न केवल अपने युग की समस्याओं का समाधान किया है, वरन् वह वर्तमान युग की समस्याओं के समाधान में भी पूर्णतया सक्षम है । प्राचीन युग हो या वर्तमान युग, मानव-जीवन की समस्याएँ सभी युगों में लगभग समान रही हैं । समग्र समस्याएँ विषमता जनित ही हैं । वस्तुतः विषमता ही समस्या है और समता हो समाधान है । ये विषमताएँ अनेक रूपों में अभिव्यक्त होती हैं। प्रमुख रूप से वर्तमान मानव जीवन की विषमताएँ चार हैं-१. सामाजिक वैषम्य, २. आर्थिक वैषम्य, ३. वैचारिक वैषम्य, ४. मानसिक वैषम्य । क्या जैन आचार-दर्शन इन विषमताओं का निराकरण कर समत्व की संस्थापना करने में समर्थ है ? नीचे हम प्रत्येक प्रकार की विषमताओं के कारणों का विश्लेषण कर जैन दर्शन द्वारा प्रस्तुत उनके समाधानों पर विचार करेंगे।
१. सामाजिक विषमता-चेतन जगत् के अन्य प्राणियों के साथ जीवन जीना होता है । यह सामुदायिक जी वन है । सामुदायिक जीवन का आधार सम्बन्ध है और नैतिकता उन सम्बन्धों की शुद्धि का विज्ञान है । पारस्परिक सम्बन्ध निम्न प्रकार के हैं१. व्यक्ति और परिवार, २. व्यक्ति और जाति, ३. व्यक्ति और समाज, ४. व्यक्ति और राष्ट्र और ५. व्यक्ति और विश्व । इन सम्बन्धों की विषमता के मूल में व्यक्ति की राग-भावना ही काम करती है । सामान्यतया राग द्वेष का सहगामी होता है । जब तक सम्बन्ध राग-द्वेष के आधार पर खड़ा होता है तब तक इन सम्बन्धों में विषमता स्वाभाविक रूप से उपस्थित रहती है। जब राग द्वेष का सहगामी होकर काम करने लगता है तो पारस्परिक सम्बन्धों में संघर्ष और टकराहट प्रारम्भ हो जाती है । राग के कारण 'मेरा' या ममत्व का भाव उत्पन्न होता है। मेरे संबंधी, मेरी जाति, मेरा धर्म, मेरा राष्ट्र ये विचार विकसित होते हैं। परिणामस्वरूप भाई-भतीजावाद, जातिवाद, सम्प्रदायवाद और राष्ट्रवाद का जन्म होता है। आज के हमारे सुमधुर सामाजिक सम्बन्धों में ये ही तत्त्व सबसे अधिक बाधक हैं। ये मनुष्य को पारिवारिक, जातीय, साम्प्रदायिक और राष्ट्रीय क्षुद्र स्वार्थों से ऊपर नहीं उठने देते हैं । यही आज की सामाजिक विषमता के मूलकारण है । अनैतिकता का मूल 'स्व' की संकुचित सीमा है । व्यक्ति जिसे अपना मानता है उसके हित की कामना करता है और जिसे पराया मानता है उसके हित की उपेक्षा करता है । सामाजिक जीवन में शोषण, क्रूर व्यवहार, घृणा आदि सभी उन्हीं के प्रति किये जाते हैं जिन्हें हम अपना नहीं मानते । यद्यपि यह बड़ा कठिन कार्य है कि हम अपनी रागात्मकता या ममत्व वृत्ति का पूर्णतया विसर्जन कर सकें। लेकिन यह भी उतना ही सत्य है कि उसका एक सीमा तक विसर्जन किये बिना अपेक्षित नैतिक जीवन का विकास नहीं हो सकता। व्यक्ति का 'स्व' चाहे वह व्यक्तिगत जीवन तक, पारिवारिक जीवन तक या राष्ट्र की सीमा तक विस्तृत
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