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________________ ४९७ उपसंहार उज्ज्वलता को प्राप्त हुई ( धारणा ध्यान समाधि रूप ) उस आत्म-संयम - योगाग्नि में (प्राण और इन्द्रियों के कर्मों को) विलीन कर देते हैं । इस प्रकार जैन आचार-दर्शन में यज्ञ के जिस आध्यात्मिक स्वरूप का प्रतिपादन किया गया है, उसका अनुमोदन बौद्ध परम्परा और गीता में भी है । तत्कालीन अन्य नैतिकता सम्बन्धी विचारों के प्रति नया दृष्टिकोण - जैन विचारकों ने अन्य नैतिकता सम्बन्धी विचारों को भी नई दृष्टि प्रदान की । बाह्य शौच या स्नान जो कि उस समय धर्म और नैतिक जीवन का एक मुख्य रूप मान लिया गया था, को भी एक नया आध्यात्मिक स्वरूप प्रदान किया गया । उत्तराध्ययनसूत्र में कहा गया है कि धर्म जलाशय है और ब्रह्मचर्य घाट (तीर्थ) है, उसमें स्नान करने से आत्मा शांत निर्मल और शुद्ध हो जाती है । इसी प्रकार बौद्ध दर्शन में भी सच्चे स्नान का अर्थ मन, वाणी और काया से सद्गुणों का सम्पादन माना गया है । न केवल जैन और बौद्ध परम्परा में वरन् वैदिक परम्परा में भी यह विचार प्रबल हो गया कि यथार्थ शुद्धि आत्मा के सद्गुणों के विकास में निहित है । प्रति भी एक नई दृष्टि प्रदान श्रेष्ठ है । उत्तराध्ययनसूत्र अपेक्षा भी जो बाह्य रूप इसी प्रकार ब्राह्मणों को दी जाने वाली दक्षिणा के की गई और यह बताया गया कि दान की अपेक्षा संयम ही में कहा गया है कि प्रतिमास सहस्रों गायों का दान करने की से दान नहीं करता, वरन् संयम का पालन करता है, उस व्यक्ति का संयम ही अधिक श्रेष्ठ है । धम्मपद में भी कहा गया है कि एक तरफ मनुष्य यदि सौ वर्षों तक हजारों की दक्षिणा देकर प्रतिमास यज्ञ करता जाय और दूसरी तरफ यदि वह पुण्यात्मा की क्षण भर भी सेवा करे, तो यह सेवा कहीं उत्तम है, न कि सौ वर्षों तक किया हुआ यज्ञ । इस प्रकार समालोच्य आचार- दर्शन ने तत्कालीन नैतिक मान्यताओं को एक नई दृष्टि प्रदान की और उन्हें आध्यात्मिक स्वरूप दिया। साथ ही नैतिकता का जो बहिर्मुखी दृष्टिकोण था उसे आध्यात्मिक संस्पर्श द्वारा अन्तर्मुखी बनाया । इससे उस युग के नैतिक चिन्तन में एक क्रांतिकारी परिवर्तन उपस्थित हुआ । उन्होंने केवल अपने युग की समस्याओं का समाधान ही प्रस्तुत नहीं किया, वरन् समालोच्य आचार-दर्शनों में वर्तमान युग की समस्याओं के समाधान की भी सामर्थ्य है । अतः यह विचार अपेक्षित है कि युगीन परिस्थितियों में समालोच्य आचार दर्शनों का और विशेष रूप से जैन दर्शन का क्या स्थान हो सकता है ? १. गीता ४।३३, २६-२८ । ३. उत्तराध्ययन ९।४० । देखिए गीता (शा.) ४।२६-२७ । ४. धम्मपद १०६ । ३२ २. उत्तराध्ययन १२।४६ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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