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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
और उसके आध्यात्मिक स्वरूप का चित्रन उपलब्ध है । बुद्ध ने भी आध्यात्मिक यज्ञ के स्वरूप का चित्रण लगभग उसी रूप में किया है जिस रूप में उसका विवेचन उत्तराध्ययनसूत्र में किया गया है । अंगुत्तरनिकाय में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का वर्णन करते हुए बुद्ध कहते हैं कि हे ब्राह्मण, ये तीन अग्नियाँ त्याग करने, परिवर्जन करने के योग्य हैं, इनका सेवन नहीं करना चाहिए। वे कौन सी हैं ? कामाग्नि, द्वेषाग्नि और मोहाग्नि । जो मनुष्य कामाभिभूत होता है वह कायावाचा-मनसा कुर्मि करता है और उससे मरणोत्तर दुर्गति पाता है । इसी प्रकार द्वष एवं मोह से अभिभूत भी कायावाचा-मनसा कुकर्म करके दुर्गति को पाता है। इसलिए ये तीन अग्नियाँ त्याग करने और परिवर्तन के योग्य हैं, उनका सेवन नहीं करना चाहिए । हे ब्राह्मण, इन तीन अग्नियों का सत्कार करें, इहें सम्मान प्रदान करें इनकी पूजा और परिचर्या भलीभाँति सुख से करें ये अग्नियाँ कौन, सी हैं ? आह्वनीयाग्नि (आहुनेहय्यग्गि), गार्हपत्याग्नि (गहपत्तग्गि) और दक्षिणाग्नि । (दक्षिणाय्यग्नि) । मां-बाप को आह्वनीयाग्नि समझना चाहिए और सत्कार से उनकी पूजा करनी चाहिए । पत्नी और बच्चे, दास तथा कर्मकार को गार्हपत्याग्नि समझना चाहिए और आदरपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिए और श्रमण ब्राह्मणों को दक्षिणाग्नि समझना चाहिए और सत्कारपूर्वक उनकी पूजा करनी चाहिए । हे ब्राह्मण, यह लकड़ियों की अग्नि कभी जलानी पड़ती हैं, कभी उसकी उपेक्षा करनी पड़ती है और कभी उसे बुझाना पड़ता है । इस प्रकार बुद्ध ने भी हिंसक यज्ञों के स्थान पर यज्ञ के आध्यात्मिक एवं सामाजिक स्वरूप को प्रकट किया। इतना ही नहीं, उन्होंने सच्चे यज्ञ का अर्थ सामाजिक जीवन से बेकारी का नाश करना बताया ।२ न केवल जैन एवं बौद्ध परम्परा में वरन् गीता में भी यज्ञ-याग की निन्दा की गयी और यज्ञ के सम्बन्ध में उसने भी सामाजिक एवं आध्यात्मिकदृष्टि से विवेचना की । सामाजिक सन्दर्भ में यज्ञ का अर्थ समाज-सेवा माना गया है । निष्कामभाव से समाज की सेवा करना गीता में यज्ञ का सामाजिक पहलू था, दूसरी ओर गीता में यज्ञ के आध्यात्मिक स्वरूप का विवेचन भी किया गया है । गीताकार कहता है कि योगीजन संयमरूप अग्नि में श्रोत्रादि इन्द्रियों का हवन करते हैं या इन्द्रियों के विषयों का इन्द्रियों में हवन करते हैं। दूसरे कुछ साधक इन्द्रियों के सम्पूर्ण कर्मों को और शरीर के भीतर रहने वाला वायु जो प्राण कहलाता है उसके "संकुचित होने" "फैलने' आदि कर्मों को, ज्ञान से प्रकाशित हुई आत्मसंयमरूप योगाग्नि में हवन करते हैं। आत्मविषयक संयम का नाम आत्मसंयम है, वही यहाँ योगाग्नि है । घृतादि चिकनी वस्तुसे प्रज्वलित हुई अग्नि की भाँति विवेकविज्ञान से
१. अंगुत्तरनिकाय-सुत्तकनिपात-उद्धृत भगवान् बुद्ध, पृ० २६ । २. देखिए भगवान् बुद्ध २३६-२३९ ।
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