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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का सुलनात्मक अध्ययन
१. मित्रादृष्टि और यम-मित्रा-दृष्टि योग के प्रथम अंग यम के समकक्ष है । इस अवस्था में अहिंसा आदि पाँच महाव्रतों अथवा पाँच यमों का पालन होता है । इस दृष्टि में स्थित व्यक्ति शुभ कार्यों के सम्पादन में रुचि रखता है और अशुभ कार्य करनेवालों के प्रति अद्वषवृत्ति रखता है। इस अवस्था में आत्मबोध तृण की अग्नि के समान स्थायी नहीं होता है।
२. तारादृष्टि और नियम-तारादृष्टि योग के द्वितीय अंग नियम के समान है । इसमें शौच, संतोष, तप, स्वाध्याय आदि नियमों का पालन होता है । जिस प्रकार मित्रा दृष्टि में शुभ कार्यों के प्रति अद्वष गुण होता है, उसी प्रकार तारादृष्टि में जिज्ञासा गुण होता है, व्यक्ति में तत्त्वज्ञान के प्रति जिज्ञासा बलवती होती है ।
३.वलादृष्टि और आसन-इस दृष्टि में स्थित व्यक्ति की तृष्णा शांत हो जाती है और स्वभाव या मनोवृत्ति में स्थिरता होती है। इस अवस्था की तुलना आसन नामक तृतीय योगांग से की जा सकती है। क्योंकि इसमें शारीरिक, वाचिक और मानसिक स्थिरता पर जोर दिया जाता है । इस अवस्था का प्रमुख गुण शुश्रूषा अर्थात् श्रवणेच्छा माना गया है । इस अवस्था में प्रारम्भ किये गये शुभ कार्य निर्विघ्न पूरे होते है। इस अवस्था में प्राप्त होनेवाला तत्त्वबोध काष्ठ की अग्नि के समान कुछ स्थायी होता है।
४. दीप्रादृष्टि और प्राणायाम-दीपा-दृष्टि योग के चतुर्थ अंग प्राणायम के समान है। जिस प्रकार प्राणायाम में रेचक, पूरक एव कुंभक ये तीन अवस्थाएँ होती हैं, उसी प्रकार बाह्य भावनियंत्रण रूप रेचक, आन्तरिक भाव नियंत्रण रूप पूरक एवं मनोभावों की स्थिरता रूप कुंभक की अवस्था होती है। यह एक प्रकार का आध्यात्मिक प्राणायाम है । इस दृष्टि में स्थित व्यक्ति सदाचरण या चरित्र को अत्यधिक महत्व देता है । वह आचरण का मूल्य शरीर की अपेक्षा भी अधिक मानता है। इस अवस्था में होने वाला आत्मबोध दीपक की ज्योति के समान होता है। यहाँ नैतिक विकास होते हुए भी आध्यात्मिक दृष्टि का पूर्ण विकास नहीं हो पाता है. अतः इस अवस्था से पतन की संभावना बनी रहती है।
५. स्थिरादृष्टि और प्रत्याहार-पूर्वोक्त चार दृष्टियों में अभिनिवेश या आसक्ति विद्यमान रहती है। अतः व्यक्ति को सत्य का यथार्थ बोध नहीं होता। उपर्युक्त अवस्थाओं तक सत्य का मान्यता के रूप में ग्रहण होता है, सत्य का साक्षात्कार नहीं होता। लेकिन इस अवस्था में आसक्ति या राग के अनुपस्थित होने से सत्य का यथार्थ रूप में बोध हो जाता है। तुलनात्मक दृष्टि से यह अवस्था प्रत्याहार के समान है जिस प्रकार प्रत्याहार में विषयविकार का परित्याग होकर आत्मा विषयोन्मुख न होते हुए स्वस्वरूप की ओर उन्मुख होता है, उसी प्रकार इस अवस्था में भी विषयविकारों का त्याग होकर आत्मा स्वभावदशा की ओर उन्मुख होती है । इस अवस्था में
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