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________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास ४८९ दुःखमयता का आभास होने लगता है । यह अवस्था भी मिथ्यात्व गुणस्थान से ही तुलनीय है । किन्तु यह उस व्यक्ति की अवस्था है जो सम्यक्त्व का स्पर्श कर मिथ्यात्व में गिरा है । अतः किसी सीमा तक इसे सास्वादन और मिश्र गुणस्थान से भी तुलनीय माना जा सकता है । ३. विक्षिप्त - इसमें सत्त्वगुण की प्रधानता होती है किन्तु रजोगुण और तमोगुण की उपस्थिति के कारण सत्त्वगुण का इनसे संघर्ष चलता रहता है । यह शुभ और अशुभ के संघर्ष की अवस्था है । सत्त्वगुण तमोगुण और रजोगुण अर्थात् प्रमाद और वासना को दबाने का प्रयत्न तो करता है, किन्तु वे भी अपना प्रभाव दिखाते रहते हैं । चित्त अन्तर्मुख होने का प्रयत्न करता है किन्तु प्रमाद और वासना के तत्त्व उसे विक्षोभित करते रहते है । इस अवस्था को जैन परम्परा के अनुसार अविरत सम्यग्दृष्टि नामक चौथे गुण स्थान से तुलनीय माना जा सकता है । यद्यपि सत्वगुण की प्रधानता होने से यह दशा पाँचवें और छठे गुणस्थानों से भी कुछ निकटता रखती है। इसकी तुलना बौद्ध परम्परा की स्रोतापन्न भूमि से भी की जा सकती है । ४. एकाग्र - यह चित्त की एकाग्रता की अवस्था है । वस्तुतः यह पूर्ण आत्मचेतनाया जागरूकता की अवस्था है । इसमें चित्त का विषयाभिमुख हो इधर-उधर भटकना समाप्त हो जाता है । व्यक्ति की इच्छाएँ और आकांक्षाएँ क्षीण हो जाती हैं और चित्त वृत्ति स्थिर हो जाती है । इसकी तुलना जैन परम्परा के सातवें से बारहवें गुणस्थान तक की भूमिकाओं से की जा सकती है । ५. निरुद्ध - चित्तवृत्तियों के निरुद्ध हो जाने का अर्थ है - चेतना पूर्ण निर्विकल्पदशा को प्राप्त हो गयी है । इसे स्वरूपावस्थान भी कहा गया है क्योंकि यहाँ साधक विषयों का चिन्तन छोड़कर स्वरूप में स्थित हो जाता है । इस अवस्था को जैनधर्म के तेरहवें और चौदहवें गुणस्थान के समान माना जा सकता है । जैन-योग परम्परा में आध्यात्मिक विकास योग परम्परा से प्रभावित होकर जैन परम्परा में भी आचार्य हरिभद्र ने आध्यात्मिक विकास की भूमियों की चर्चा की है । जिस प्रकार योग परम्परा में योग के आठ अंग माने गये हैं, उसी प्रकार आचार्य हरिभद्र ने योगदृष्टिसमुच्चय में आठ दृष्टियों का विधान किया है जो इस प्रकार हैं - १. मित्रा, २० तारा, ३. बला, ४. दीप्रा, ५. स्थिरा, ६. कान्ता, ७. प्रभा और ८ परा । इन आठ दृष्टियों में चार दृष्टियाँ प्रतिपाती और चार दृष्टियाँ अप्रतिपाती हैं । प्रथम चार दृष्टियों से पतन की संभावना बनी रहती हैं | इसलिए उन्हें प्रतिपाती कहा गया है, जबकि अन्तिम चार दृष्टियों से पतन की संभावना नहीं होती. अतः वे अप्रतिपाती कही जाती हैं। योग के आठ अंगों से इन दृष्टियों की तुलना इस प्रकार की जा सकती है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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