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आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास
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व्यक्ति का आचरण सामान्यतया निर्दोष होता है। इस अवस्था में होने बाले तत्त्व-बोध की तुलना रत्न की प्रभा से की जाती है, जो निर्दोष तथा स्थायी होती है।
६. कान्तादृष्टि और धारणा-कान्तादृष्टि योग के धारणा अंग के समान है । जिस प्रकार धारणा में चित्त की स्थिरता होती है, उसी प्रकार इस अवस्था में भी चित्तवृत्ति स्थिर होती है। उसमें चंचलता का अभाव होता है । इस अवस्था में व्यक्ति में सद्असत् का विवेक पूर्णतया स्पष्ट होता है। उसमें किंकर्तव्य के विषय में कोई अनिश्चयात्मक स्थिति नहीं होती है। आचरण पूर्णतया शुद्ध होता है। इस अवस्था में तत्त्वबोध तारे की प्रभा के समान एक-सा स्पष्ट और स्थिर होता है।
७. प्रभादृष्टि और ध्यान-प्रभादृष्टि की तुलना ध्यान नामक सातवें योगांग से की जा सकती है । धारणा में चित्तवृत्ति को स्थिरता एकदेशीय और अल्पकालिक होती है, जबकि ध्यान में चित्तवृत्ति की स्थिरता प्रभारूप एवं दीर्घकालिक होती है । इस अवस्था में चित्त पूर्णतया शांत होता है । पातंजल योग-दर्शन की परिभाषा में यह प्रशांतवाहिता की अवस्था है । इस अवस्था में रागद्वेषात्मक वृत्तियों का पूर्णतया अभाव होता है। इस अवस्था में होनेवाला तत्त्वबोध सूर्य की प्रभा के समान दीर्घकालिक और अति स्पष्ट होता है और कर्ममल क्षीणप्राय हो जाते हैं ।
८. परावृष्टि और समाधि-परादृष्टि की तुलना योग के आठवें अंग समाधि से की गयी है । इस अवस्था में चित्तवृत्तियाँ पूर्णतया आत्म-केन्द्रित होती हैं । विकल्प, विचार आदि का पूर्णतया अभाव होता है । इस अवस्था में आत्मा स्वस्वरूप में ही रमण करती है और अन्त में निर्वाण या मोक्ष प्राप्त कर लेती है इस प्रकार यह नैतिक साध्य की उपलब्धि की अवस्था है, आत्मा के पूर्ण समत्व की अवस्था है जोकि समग्र आचार दर्शन का सार है । परादृष्टि में होने वाले तत्त्वबोध की तुलना चन्द्रप्रभा से की जाती है। जिस प्रकार चन्द्रप्रभा शांत और आल्हादजनक होती है, उसी प्रकार इस अवस्था में होने वाला तत्त्वबोधभी शांत एवं आनन्दमय होता है।' योगबिन्दु मे आध्यात्मिक विकास- आचार्य हरिभद्र ने योगबिन्दु में आध्यात्मिक विकास-क्रम की भूमिकाओं को निम्न पाँच भागों में विभक्त किया है -१. अध्यात्म, २. भावना, ३. ध्यान, ४. समता, और ५. वृत्तिसंक्षय । आचार्य ने स्वयं ही इन भूमिकाओं की तुलना योग-परम्परा की सम्प्रज्ञात और असम्प्रज्ञात नामक भूमिकाओं से की है। प्रथम चार भूमिकाएँ सम्प्रज्ञात हैं और अन्तिम असम्प्रज्ञात । इन पाँच भूमिकाओं में समता चित्तवृत्ति की समत्व की अवस्था है और वृत्तिसंक्षय आत्मरमण की । समत्व हमारी आध्यात्मिक साधना का प्रथम चरण है और वत्तिसंक्षय आध्यात्मिक साध्य की उपलब्धि । १. देखिए-जैन आचार पृ० ४०-४७ । २. योगबिन्दु, ३१. उद्धृत-समदर्शी आचार्य हरिभद्र, पृ० १००-१०१ ।
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