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________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास ४८७ कृष्णन् के शब्दों में, 'तब सत्त्व उन्नयन के द्वारा चेतना का प्रकाश .या ज्योति बन जाता है, रजस् तप बन जाता है ओर तमस् प्रशान्तता या शान्ति बन जाता है ।' १४. गीता की दृष्टि से तुलना करने पर अयोगीकेवली गुणस्थान त्रिगुणातीत और देहातीत अवस्था माना जा सकता है। जब गीता का जीवन्मुक्त साधक योग प्रक्रिया द्वारा अपने शरीर का परित्याग करता है, तो वही अवस्था जैन परम्परा में अयोगीकेवली गुणस्थान कही जाती है। इस प्रकार तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर हम पाते हैं कि गीता की त्रिगुणात्मक धारणा जैन परम्परा के गुणस्थान सिद्धान्त के निकट है। योगवसिष्ठ और गुणस्थान-सिद्धान्त इस प्रसिद्ध ग्रन्थ में जैन परम्परा के चौदह गुणस्थानों के समान ही आध्यात्मिक विकास की चौदह सीढ़ियाँ मानी गयी हैं, जिनमें सात आध्यात्मिक विकास की अवस्था को और सात आध्यात्मिक पतन की अवस्था को सूचित करती हैं । यदि विचारपूर्वक देखा जाय तो जैन परम्परा के गुणस्थान-सिद्धान्त में भी आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से विकास का सच्चा स्वरूप अप्रमत्त चेतना के रूप में सातवें स्थान से ही प्रारम्भ होता है । इस प्रकार जैन परम्परा में भी चौदह गुणस्थानों में सात अवस्थाएँ आध्यात्मिक विकास की और सात अवस्थाएँ आध्यात्मिक अविकास की हैं । योगवसिष्ठ की उपर्युक्त मान्यता की जैन परम्परा से कितनी निकटता है इसका निर्देश पं० सुखलाल जी ने भी किया है । योग वसिष्ठ में जो १४ भूमिकाएँ हैं, उनमें सात का सम्बन्ध अज्ञान से और सात का सम्बन्ध ज्ञान से है । अज्ञान को सात भूमिकाएँ निम्न हैं १. बीज जाग्रत-यह चेतना की प्रसुप्त अवस्था है। यह वनस्पति जगत् की अवस्था है। २. जाग्रत-इसमें अहं और ममत्व का अत्यल्प विकास होता है । यह पशुजगत् की अवस्था है। ३. महाजाग्रत-इस अवस्था में अहं और ममत्व पूर्ण विकसित हो जाते हैं । यह आत्मचेतना की अवस्था है । यह अवस्था मनुष्य जगत् से सम्बन्धित है । ४. जाग्रत स्वप्न-यह मनोकल्पना को अवस्था है। इसे आधुनिक मनोविज्ञान में दिवास्वप्न की अवस्था कह सकते हैं । यह व्यक्ति को भ्रमयुक्त अवस्था है । ५. स्वप्न-यह स्वप्न चेतना की अवस्था है । यह निद्रित अवस्था की अनुभूतियों को निद्रा के पश्चात् जानना है। १. भगवद्गीता (हिन्दी) डॉ० राधाकृष्णन्, पृ० ३१० । २. योगवशिष्ठ उत्पत्ति प्रकरण सर्ग ११७।२-२४ उद्धृत- दर्शन और चिन्तन भाग २ पृ० २८२-२८३ । ३. देखिए-दर्शन और चिन्तन भाग २ पृ० २८२-२८३ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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