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________________ ४८६ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन ६. प्रमत्तसंयत गुणस्थान में यद्यपि आचार-पक्ष और विचार पक्ष दोनों में सत्त्वगुण प्रधान होता है, फिर भी तम और रज उसकी इस प्रधानता को स्वीकार नहीं करते हुए अपनी शक्ति बढ़ाने की और आचार-पक्ष की दृष्टि से सत्त्व पर अपना प्रभुत्व जमाने की कोशिश करते रहते हैं । ७. अप्रमत्त-संयत गुणस्थान में सत्त्वगुण तमोगुण का या तो पूर्णतया उन्मूलन कर देता है अथवा उस पर पूरा अधिकार जमा लेता है, लेकिन अभी रजोगुण पर उसका पूरा अधिकार नहीं हो पाता है । ८. अपूर्वकरण नामक गुणस्थान में सत्त्वगुण रजोगुण पर पूरी तरह काबू पाने का प्रयास करता है। ९. अनावृतिकरण नामक नवें गुणस्थान में सत्त्वगुण रजोगुण को काफी अशक्त बनाकर उस पर बहुत कुछ काबू पा लेता है, फिर भी रजोगुण अभी पूर्णतया निःशेष नहीं होता है । रजोगुण की कषाय एवं तृष्णारूपी आसक्तियों का बहुत कुछ भाग नष्ट हो जाता है, फिर भी रागात्मक आसक्तियाँ सूक्ष्म लोभ के छद्मवेश में अवशेष रहती हैं। १०. सूक्ष्म सम्पराय नामक गुणस्थान में साधक छद्मवेशी रजस् को जो सत्त्व का छद्म स्वरूप धारण किये हुए था, पकड़कर उस पर अपना आधिपत्य स्थापित करता है । ११. उपशान्तमोह नामक गुणस्थान में सत्त्व का तमस् रजस् पर पूर्ण अधिकार तो होता है, लेकिन यदि सत्त्व पूर्व अवस्थाओं में उनका पूर्णतया उन्मूलन नहीं करके मात्र उनका दमन करते हुए विकास की इस अवस्था को प्राप्त करता है तो वे दमित तमस् और रजस् अवसर पाकर पुनः उस पर हावी हो जाते हैं। १२. क्षीणमोह गुणस्थान विकास की वह कक्षा है जिसमें साधक पूर्वावस्थाओं के तमस् तथा रजस् का पूर्णतया उन्मूलन कर देता है । यह विशुद्ध सत्त्वगुण की अवस्था है । यहाँ आकर सत्त्व का रजस् और तमस् से चलने वाला संघर्ष समाप्त हो जाता है । साधक को अब सत्त्वरूपी उस साधन की भी कोई आवश्यकता नहीं रहती है, अतः वह ठीक उसी प्रकार सत्त्वगुण का भी परित्याग कर देता है जैसे कांटे के द्वारा काँटा निकाल लेने पर उस काँटा निकालने वाले काँटे का भी परित्याग कर दिया जाता है । यहाँ नैतिक पूर्णता प्राप्त हो जाने से विकास एवं पतन के कारणभूत तीनों गुणों का साधनरूपी स्थान समाप्त हो जाता है । १३. सयोगीकेवली गुणस्थान आत्मतत्त्व की दृष्टि से त्रिगुणातीत अवस्था है । यद्यपि शरीर के रूप में इन तीनों का अस्तित्व बना रहता है, तथापि इस अवस्था में त्रिगुणात्मक शरीर में रहते हुए भी आत्मा उनसे प्रभावित नहीं होती। वस्तुतः अब यह त्रिगुण भी साधन के रूप में संघर्ष की दशा में न रहकर विभाव से स्वभाव बन जाते हैं । साधना सिद्धि में परिणत हो जाती है। साधन स्वभाव बन जाता है । डॉ. राधा Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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