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माध्यात्मिक एवं नैतिक विकास
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नहीं है, तयापि जैन विचारणा के गुणस्थान प्रकरण में वर्णित आध्यात्मिक विकास-क्रम की महत्त्वपूर्ण अवस्थाओं का चित्रण उसमें उपलब्ध है, जिन्हें यथाक्र म संजोकर नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास का क्रम प्रस्तुत किया जा सकता है ।
जैन आचार-दर्शन के १४ गुणस्थानों का गीता के दृष्टिकोण से विचार करने के लिए सर्वप्रथम हमें यह निश्चय करना होगा कि गीता में वर्णित तीनों गुणों का स्वरूप क्या है और वे जैन-विचारणा के किन-किन शब्दों से मेल खाते हैं। गीता के अनुसार तमोगुण के लक्षण है-अज्ञान, जाडयता, निष्क्रियता, प्रमाद, आलस्य, निद्रा और मोह । रागात्मकता, तृष्णा, लोभ, क्रियाशीलता, अशान्ति और ईर्ष्या रजोगुण के लक्षण हैं । सत्त्वगुण ज्ञान के प्रकाश, निर्माल्यता और निर्विकार अवस्था और सुखों का उत्पादक है। इन तीनों गुणों को प्रकृतियों पर विचार करने पर ज्ञात होता है कि जैन विचार में बन्धन के पाँच कारणों-१. अज्ञान (मिथ्यात्व), २. प्रमाद, ३. अविरति, ४. कषाय और ५. योग से इनकी तुलना की जा सकती है। तमोगुण को मिथ्यात्व और प्रमाद, रजोगुण को अविरति, कषाय और योग तथा सत्त्वगुण को विशुद्ध ज्ञानोपयोग, दर्शनोपयोग, चारित्रोपयोग के तुल्य माना जा सकता है। इन तुल्य आधारों के द्वारा तुलना करने पर गुणस्थान की धारणा का गीता के अनुसार निम्न स्वरूप होगा।
१. मिथ्यात्व गुणस्थान में तमोगुण प्रधान होता है और रजोगुण तमोन्मुखी प्रवृत्तियों में संलग्न होता है। सत्वगुण इस अवस्था में पूर्णतया तमोगुण और रजोगुण के अधीन होता है । यह रज समन्वित तमोगुण-प्रधान अवस्था है।
२. सास्वादन गुणस्थान की अवस्था में भी तमोगुण प्रधान होता है । रजोगुण तमोन्मुखी होता है, फिर भी किंचित् रूप में सत्त्वगुण का प्रकाश रहता है । यह सत्वरज समन्वित तमोगुण प्रधान अवस्था है ।
३. मिश्र गुणस्थान में रजोगुण प्रधान होता है। सत्त्व और तम दोनों ही रजोगुण के अधीन होते हैं । यह सत्त्व-तम समन्वित रजोगुण प्रधान अवस्था है ।
___४. सम्यक्त्व गुणस्थान में व्यक्ति के विचार-पक्ष में सत्त्वगुण का प्राधान्य होता है। विचार की दृष्टि से तमस् और रजस् गण सत्वगुण से शासित होते हैं, लेकिन आचार की दृष्टि से सत्त्वगुण तमस् और रजस् गुणों से शासित होता है । यह विचार की दृष्टि से रज समन्वित सत्त्वगुण प्रधान और आचार की दृष्टि से रजसमन्वित तमोगुणप्रधान अवस्था है।
५. देशविरत सम्यक्त्व गुणस्थान में विचार को दृष्टि से तो सत्त्वगुण प्रधान होता है, साथ ही आचार की दृष्टि से भी सत्त्व का विकास प्रारम्भ हो जाता है । यद्यपि रज और तम पर उसका प्राधान्य स्थापित नहीं हो पाता है । यह तमोगुण समन्वित सत्त्वोन्मुखी रजोगुण की अवस्था है ।
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