________________
४८४
जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
हो जाता है । ऐसा शरीरधारी आत्मा शरीरके कारणभूत एवं उस शरीर से उत्पन्न होने वाले त्रिगुणात्मक भावों से ऊपर उठकर गुणातीत अवस्था को प्राप्त हो जन्म, जरा, मृत्यु के दुःखों से मुक्त होकर अमृत तत्त्व को प्राप्त हो जाता है। वह इन गुणों से विचलित नहीं होता; वह प्रकृति (कर्मों) के परिवर्तनों को देखता है, लेकिन उनमें उलझता नहीं, वह सुख-दुःख एवं लौह-कांचन को समान समझता है, सदैव आत्मस्वरूप में स्थिर रहता है। प्रिय के वियोग और अप्रिय के संयोग में तथा निन्दा स्तुति में वह सम रहता है। उसका मन सदैव स्थिर रहता है। मानापमान तथा शत्रु-मित्र उसके लिए समान हैं । ऐसा सर्व-आरम्भों (पापकर्मों) का त्यागी महापुरुष गुणातीत कहा जाता है । तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर यह अवस्था जैन विचारणा के १३वें सयोगीकेवली गुणस्थान एवं बौद्ध विचारणा की अर्हतभूमि के समान है। यह पूर्ण वीतरागदशा है, जिसके स्वरूप के सम्बन्ध में भी सभी समालोच्य आचार-दर्शनों में काफी निकटता है।
त्रिगुणात्मक देह से मुक्त होकर विशुद्ध परमात्मस्वरूप को प्राप्त कर लेना साधना की अन्तिम कक्षा है । इसे जैन-विचार में अयोगीकेवली गुणस्थान कहा गया है। गीता में उसके समतुल्य ही इस दशा का चित्रण उपलब्ध है । गीता के आठवें अध्याय में श्रीकृष्ण कहते हैं-मैं तुझे उस परमपद अर्थात् प्राप्त करने योग्य स्थान को बताता हुँ, जिसे विद्वज्जन 'अक्षर' कहते हैं; वीतराग मुनि जिसकी प्राप्ति की इच्छा से ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं और जिसमें प्रवेश करते हैं।' आगे वीतराग मुनि द्वारा उसकी प्राप्ति के अन्तिम उपाय की ओर संकेत करते हुए वे कहते हैं कि 'शरीर के सब द्वारों का संयम करके (काया एवं वाणी के व्यापारों को रोककर) मन को हृदय में रोककर (मन के व्यापारों का निरोध कर) प्राण-शक्ति को मूर्धा (शीर्ष) में स्थिर कर योग को एकाग्र कर ओ३म् इस अक्षर का उच्चारण करता हुआ मेरे अर्थात् विशुद्ध आत्मतत्त्व के स्वरूप का स्मरण करता हुआ अपने शरीर का त्याग कर संसार से प्रयाण करता है, वह उस परमगति को प्राप्त कर लेता है। इसके पूर्व भी इसी तथ्य का विवेचन उपलब्ध होता है । जो व्यक्ति इस संसार से प्रस्थान के समय मन को भक्ति और योगबल से स्थिर करके (अर्थात् मन के व्यापारों को रोक करके) अपनी प्राणशक्ति को भौंहों के मध्य सम्यक् प्रकार से स्थापित कर देहत्याग करता है, वह उस परमदिव्य पुरुष को प्राप्त होता है । कालिदास ने भी योग के द्वारा अन्त में शरीर त्यागने का निर्देश किया। यह समग्र प्रक्रिया जैन-विचार के चतुर्दश अयोगीकेवली गुणस्थान के अति निकट है। इस प्रकार यद्यपि गीता में आध्यात्मिक विकास क्रम का व्यवस्थित एवं विशद विवेचन उपलब्ध
१. गीता, ८।११ ३, वही, ८।१०।
२. वही ८।१२, ८।१३। ४. कालिदास, रघुवंश १८ ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org