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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन गया है, वह वर्तमान में चाहे दुराचारी ही क्यों न हो, वह शीघ्र ही सदाचारी बनकर शाश्वत शान्ति (मुक्ति) प्राप्त करता है । क्योंकि वह साधना की यथार्थ दिशा की ओर मुड़ गया है । इसी बात को बौद्ध-विचार में स्रोतापन्न भूमि अर्थात् निर्वाण-मार्ग के प्रवाह में गिरा हुआ कहकर प्रकट किया गया है । जैन, बौद्ध और गीता के आचार-दर्शन समवेत रूप से यह स्वीकार करते हैं कि ऐसा साधक मुक्ति अवश्य प्राप्त कर लेता है ।
गीता के अनुसार नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास की पांचवीं भूमिका यह हो सकती है जिसमें श्रद्धा एवं बुद्धि तो सात्त्विक हो, लेकिन आचरण में रजोगुण सत्त्वोन्मुख होता है । फिर भी वह चित्तवृत्ति की चंचलता का कारण होता है। साथ ही पूर्वावस्था के तमोगुण के संस्कार भी पूर्णतः विलुप्त नहीं हो जाते हैं । तमोगुण एवं रजोगुण की तरतमता के आधार पर इस भूमिका के अनेक उप-विभाग किये जा सकते हैं। जैन-विचार में इस प्रकार के विभाग किये गये हैं, लेकिन गीता में इतनी गहन विवेचना उपलब्ध नहीं है। फिर भी इस भमिका का चित्रण गीता के छठे अध्याय में मिल जाता है । वहाँ अर्जुन शंका उपस्थित करते हैं कि हे कृष्ण, जो व्यक्ति श्रद्धायुक्त (सम्यग्दृष्टि) होते हुए भी (रजोगुण के कारण) चंचल मन होने से योग की पूर्णता को प्राप्त नहीं होता उसकी क्या गति होती है ? क्या वह ब्रह्म (निर्वाण) की ओर जानेवाले मार्ग से पूर्णतया भ्रष्ट तो नहीं हो जाता ?" श्रीकृष्ण कहते हैं कि चित्त की चंचलता के कारण साधना के परम लक्ष्य से पतित हुआ ऐसा साधक भी सम्यक्श्रद्धा से से युक्त एवं सम्यक् आचरण में प्रयत्नशील होने से अपने कर्मों के कारण ब्रह्म-प्राप्ति की यथार्थ दिशाा में रहता है । अनेक शुभ योनियों में जन्म लेता हुआ पूर्व-संस्कारों से साधना के योग्य अवसरों को उपलब्ध कर जन्मान्तर में पापों से शुद्ध होकर अध्यवसायपूर्वक प्रयासों के फलस्वरूप परमगति (निर्वाण) प्राप्त कर लेता है। जैन-विचार से तुलना करने पर यह अवस्था पाँचवें देशविरत सम्यग्दृष्टि गुणस्थान से प्रारम्भ होकर ग्यारहवें उपशान्तमोह गुणस्थान तक जाती है। पाँचवें एवं छठे गुणस्थान तक श्रद्धा के सात्त्विक होते हुए भी आचरण में सत्त्वोन्मुख रजोगुण तमोगुण से समन्वित होता है । उसमें प्रथम की अपेक्षा दूसरी अवस्था में रजोगुण की सत्त्वोन्मुखता बढ़ती है, वहीं सत्त्व की प्रबलता से उसकी मात्रा क्रमशः कम होते हुए समाप्त हो जाती है । वस्तुतः माधना की इस कक्षा में व्यक्ति सात्त्विक (सम्यक्) जीवन दृष्टि से सम्पन्न होकर आचरण को भी वैसा ही बनाने का प्रयास करता है, लेकिन तमोगुण और रजोगुण के पूर्वसंस्कार बाधा उपस्थित करते हैं। फिर भी यथार्थ बोध के कारण व्यक्ति में आचरण की सम्यक दिशा के लिए अनवरत प्रयास का प्रस्फुटन होता है जिसके फलस्वरूप तमोगुण और रजोगुण
१. गीता, ९।३१ ३. वही, ६।३७, ६।३८
२. वही, ६।४५ ४. वही, ६।४०
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