________________
जैन, बौद्ध तथा गीता के आधारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
प्राथमिक तथ्य न होकर उसकी जीवनदृष्टि ही प्राथमिक तथ्य होती है; आचरण का स्थान द्वितीय होता है । उनमें यथार्थ दृष्टिकोण के अभाव में किया गया आचरण अधिक मूल्यवान् नहीं होता । उसका जो कुछ भी मूल्य है वह उसके यथार्थ दृष्टि की ओर उन्मुख होने में ही है । अतः हम गीता की दृष्टि से नैतिक विकास की श्रेणियों की चर्चा जैन और बौद्ध परम्पराओं के समान ही श्रद्धा को प्राथमिक और आचरण को द्वितीयक मानकर ही करेंगे । गीता में भी यह कहा गया है कि दुराचारी भी सम्यक् निश्चयवाला होने से साधु ही माना जाना चाहिए । इस कथन में उपर्युक्त विचारणा की पुष्टि की गयी है । अतः नैतिक विकास की श्रेणियों का विवेचन करते समय प्रथम जीवनदृष्टि, श्रद्धा एवं ज्ञान (बुद्धि) का सत्त्व, रज एवं तमोगुण के आधार पर त्रिविध वर्गीकरण करना होगा । तत्पश्चात् उस सत्त्वप्रधान जीवन-दृष्टि का आचरण की दृष्टि से त्रिविध विवेचन करना होगा । यद्यपि प्रत्येक गुण में भी तारतम्य की दृष्टि से अनेक अवान्तर वर्ग हो सकते हैं, लेकिन प्रस्तुत सन्दर्भ में अधिक भेद-प्रभेदों की ओर जाना इष्ट नहीं है ।
४८०
१. प्रथम वर्ग वह है जहाँ श्रद्धा एवं आचरण दोनों ही तामस हैं । जीवन-दृष्टि अशुद्ध है। गीता के अनुसार इस वर्ग में रहनेवाला प्राणी परमात्मा की उपलब्धि में असमर्थ होता है, क्योंकि उसके जीवन की दिशा पूरी तरह असम्यक् है । गीता के अनुसार इस अविकास दशा की प्रथम कक्षा में प्राणी की ज्ञान-शक्ति माया के द्वारा कुण्ठित रहती है, उसकी वृत्तियाँ आसुरी और आचरण पापकर्मा होता है । यह अवस्था जैन विचारणा के मिथ्यात्व गुणस्थान एवं बौद्ध विचारणा की अन्धपृथक्जन भूमि के समान है । गीता के अनुसार इस तमोगुण भूमि में जन्म लेता है; (प्रलीनस्तमसि मूढयोनिषु जायते
मृत्यु होने पर प्राणी मूढ़ योनियों में १४.१५) अधोगति को प्राप्त होता है ।
२. दूसरा वर्ग हो सकता है, जहाँ श्रद्धा अथवा जीवनदृष्टि तो तामस हो' लेकिन आचरण सात्विक हो । इस वर्ग के अन्दर गीता में वर्णित वे भक्त आते हैं, जो आर्त भाव एवं किसी कामना को लेकर ( अर्थार्थी) भक्ति ( धर्माचरण) करते हैं । गीताकार ने इनको सुकृति (सदाचारी) एवं उदार कहा है । लेकिन साथ ही साथ यह भी स्वीकार किया है कि ऐसे व्यक्ति परमात्मा, मोक्ष या परमगति को प्राप्त करने में असमर्थ होते हैं । गीता का स्पष्ट निर्देश है कि कामनाओं के कारण जिनका ज्ञान अपहृत हो गया वे सम्यकदृष्टि पुरुष के समान आचरण करते हुए भी अस्थायी फल को प्राप्त होते हैं, जबकि यथार्थदृष्टि-सम्पन्न व्यक्ति उसी आचरण के फलस्वरूप परमात्मस्वरूप की प्राप्ति करते हैं ।" इसका तात्पर्य यह है कि गीता के अनुसार भी ऐसे व्यक्तियों की दृष्टि या
१. गीता, ९।३०
३. वही ७।१६, ७।१८ ( इसमें उदारे शब्द का प्रयोग अपेक्षाकृत है )
४. वही ७ २०
Jain Education International
२ . वही १।१५
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org