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________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास ४७९ दशा का प्रतिपादन है । जिससे नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास को समझा जा सकता है । जब राजसगुण और सत्त्वगुण को दबाकर तमोगुण हावी होता है, तो जीवन में निष्क्रियता एवं जड़ता बढ़ती है । प्राणी परिवेश के सम्मुख झुकता रहता है । यह विकास की अवस्था हैं । जब सत्त्व और तम को दबाकर राजस प्रधान होता है तो जीवन में अनिश्चयता, तृष्णा और लालसा बढ़ती है । इसमें अन्ध एवं आवेशपूर्ण प्रवृत्तियों का बाहुल्य होता है, यह अनिश्चय की अवस्था है । यह दोनों ही अविकास की सूचक हैं | जब रज और तमस् को दबाकर सत्त्व प्रबल होता है तो जीवन में ज्ञान का प्रकाश अलोकित होता है । जीवन यथार्थ आचरण की दिशा में बढ़ता है । यह विकास की भूमिका है । जब सत्त्व के ज्ञानप्रकाश में आत्मा अपने यथार्थ स्वरूप को पहचान लेती है, तो वह गुणातीत हो द्रष्टामात्र रह जाती है । इन गुणों की प्रवृत्तियों में उसकी ओर से मिलनेवाला सहयोग बन्द हो जाता है । त्रिगुण भी संघर्ष के लिए मिलनेवाले सहयोग के अभाव में संघर्ष से विरत हो साम्यावस्था में स्थित हो जाते हैं । तब सत्त्व ज्ञान ज्योति बन जाता है । रजस् स्वस्वरूप में रमण बन जाता है और तमस् शान्ति का प्रतीक होता है । यह त्रिगुणातीत दशा ही आध्यात्मिक पूर्णता की अवस्था है। सत्त्व, रज और तम इन तीन गुणों के आधार पर ही गीता में व्यक्तित्व, श्रद्धा, ज्ञान, बुद्धि कर्म, कर्ता आदि का त्रिविध वर्गीकरण है । प्रश्न यह उठता है कि हम गीता में इस त्रिगुणात्मकता की धारणा को ही नैतिक विकास क्रम का आधार क्यों मानते हैं ? इसका उत्तर यह है कि जिस प्रकार जैन दर्शन में बन्धन का प्रमुख कारण मोह कर्म है और उसके दो भेद दर्शन मोह और चारित्र मोह के आवरणों की तारतम्यता के आधार पर प्रमुख रूप से नैतिक विकास की कक्षाओं की विवेचना की जाती है, उसी प्रकार गीता के आचार दर्शन में बन्धन का मूल कारण त्रिगुण है ।" गीता स्पष्ट रूप से कहती है कि सत्त्व, रज और तम इन गुणों से प्रत्युत्पन्न त्रिगुणात्मक भावों से मोहित होकर जगत् के जीव उस परम अव्यय परमात्मस्वरूप को नहीं जान पाते हैं । अतः गीता की दृष्टि से नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास क्रम की चर्चा करते समय इन गुणों को आधारभूत मानना पड़ता है । यद्यपि सभी गुण बन्धन हैं, तथापि उनमें तारतम्य है । जहाँ तमोगुण विकास में बाधक होता हैं, वहाँ सत्त्व गुण उसमें ठीक उसी प्रकार सहायक होता है, जिस प्रकार जैनदृष्टि में सम्यक्त्व मोह विकास में सहायक होता है । यदि हम नैतिक विकास दृष्टि से इस सिद्धान्त की चर्चा करना चाहते हैं तो हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि जिन नैतिक विवेचनाओं में भौतिक दृष्टिकोण के स्थान पर आध्यात्मिक दृष्टिकोण को स्वीकृत किया जाता है, उनमें नैतिक मूल्यांकन की दृष्टि से व्यक्ति का आचरण १. गीता, १४।१० । ३. गीता ७।१३ । Jain Education International २. गीता, १४।५ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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