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जैन, बौद्ध तथा गोता के आवारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
५. शैक्ष-बुद्धघोष के अनुसार यह अवस्था शिल्प कला के अध्ययन की अवस्था है, जबकि मेरी दृष्टि में इसे बौद्ध परम्परा के श्रामणेर या जैन परम्परा के सामायिकचारित्र जैसी भूमि के समकक्ष मानना चाहिए। जैन गुणस्थान सिद्धान्त से इस अवस्था की तुलना छठे प्रमत्तसंयत गुणस्थान से भी की जा सकती है ।
६. श्रमण-बुद्धघोष ने इसे संन्यास ग्रहण की अवस्था माना है । जैन परम्परा में इसे अप्रमत्तसंयत गुणस्थान के समकक्ष अवस्था माना जा सकता है ।
१. जिन-बुद्धघोष ने इसे ज्ञान प्राप्त करने की भूमि माना है। किन्तु मेरी दृष्टि में यह भूमि जैन परम्परा के सयोगीकेवली गुणस्थान या बौद्ध परम्परा की अर्हत् अवस्था के समकक्ष होनी चाहिए ।
८. प्राज्ञ-बुद्धघोष ने इसे वह अवस्था माना है, जिसमें भिक्षु (जिन) कुछ भी नहीं बोलता। वस्तुतः यह अवस्था जैन परम्परा के अयोगीकेवली गुणस्थान के समान ही होना चाहिए। जब साधक शारीरिक और मानसिक गतिविधियों का पूर्णतया निरोध कर लेता है।
__ वस्तुतः बुद्धघोष ने प्रथम से लेकर पाँचवीं भूमिका तक के जो अर्थ किये हैं वे युक्तिसंगत नहीं है । इस बात का उल्लेख पं० सुखलालजी और प्रो० होनले ने भी किया था । क्योंकि बुद्धघोष की व्याख्या का सम्बन्ध आध्यात्मिक विकास के साथ नहीं बैठता था । यद्यपि मैंने इनका जो अर्थ किया है वह भी विद्वानों की दृष्टि में क्लिष्ट कल्पना तो होगी किन्तु फिर भी वह आजीवक सम्प्रदाय की मूल भावना के अधिक निकट होगा। वस्तुतः बुद्धघोष के समय तक इन शब्दों का मूल अर्थ विलुप्त हो गया होगा और इसलिए इनके सम्बन्ध में उन्होंने अपनी बुद्धि के अनुसार ही कल्पना की होगी । इस प्रसंग में मैंने जो व्याख्या की है वह भसंगत नहीं मानी जा सकती है । गीता के त्रिगुण सिद्धान्त और गुणस्थान-सिद्धान्त को तुलना
यद्यपि गीता में नैतिक एवं आध्यात्मिक विकासक्रम का उतना विस्तृत विवेचन नहीं मिलता, जितना जैन-विचार में मिलता है, तथापि गीता में उसकी एक मोटी रूपरेखा अवश्य है । गीता में इस वर्गीकरण का प्रमुख आधार त्रिगुण की धारणा है । डॉ० राधाकृष्णन् भगवद्गीता की टीका में लिखते हैं-'आत्मा का विकास तीन सोपानों से होता है। यह निष्क्रिय, जड़ता और अज्ञान ( तमोगुणप्रधान अवस्था ) से भौतिक सुखों के लिए संघर्ष ( रजोगुणात्मक प्रवृत्ति ) के द्वारा ऊपर उठती हुई ज्ञान और आनन्द की ओर बढ़ती है ।' गीता के अनुसार आत्मा तमोगुण से रजोगुण और सत्त्वगुण की ओर बढ़ती हुई अन्त में गुणातीत अवस्था को प्राप्त हो जाती है। गीता में इन गुणों के संघर्ष की
१. भगवद्गीता-डॉ० राधाकृष्णन्, पृ० ३१३ ।
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