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________________ जैन आचार के सामान्य नियम ११. धर्ममेघा - जैसे मेघ आकाश को व्याप्त करता है, वैसे ही इस भूमि में समाधि धर्माका व्याप्त कर लेती है । इस भूमि में बोधिसत्त्व दिव्य शरीर को प्राप्त कर रत्नजड़ित दैवीय कमल पर स्थित दिखाई देते हैं । यह भूमि जैनधर्म के तीर्थंकर के समवसरण - रचना के समान प्रतीत होती है । आजीवक सम्प्रदाय एवं आध्यात्मिक विकास की अवधारणा बुद्ध और महावीर के समकालीन विचारक मंखली गोशालक के आजीवक सम्प्रदाय में आध्यात्मिक विकास की कोई अवधारणा अवश्य थी, जिसका उल्लेख 'मज्झिमनिकाय ' की बुद्धघोष कृत सुमंगलविलासिनी टीका में मिलता है । बुद्धघोष ने आजीवक सम्प्रदाय की आध्यात्मिक विकास की आठ क्रमिक अवस्थाओं का उल्लेख किया है । ये आठ अवस्थाएँ निम्न हैं १. मन्द--- बुद्धघोष के अनुसार जन्म से लेकर सात दिन तक यह 'मन्द अवस्था' होती है किन्तु मेरी दृष्टि में 'मन्द - अवस्था' का अर्थ भिन्न ही होना चाहिए । यद्यपि वर्तमान में आजीवक सम्प्रदाय के ग्रन्थ उपलब्ध नहीं है, इसलिए इस सम्बन्ध में वास्तविक अर्थ बता पाना तो कठिन है । किन्तु यह भूमि जैन दर्शन मिथ्यात्व गुणस्थान के समान ही होनी चाहिए, जिसमें प्राणी का आध्यात्मिक विकास कुण्ठित रहता है । ४७७ २. खिड्डा - बुद्धघोष ने इसे बालक की रुदन और हास्य मिश्रित क्रीड़ा की अवस्था माना है । किन्तु मेरी दृष्टि में यह अवस्था जैन परम्परा के अविरत सम्यकदृष्टि गुणस्थान के समान होना चाहिए, जिसमें साधक आत्मरमण या आध्यात्मिक क्रीड़ा की अवस्था में रहता है । ३. पदवीमांसा -बुद्धघोष के अनुसार जिस प्रकार बालक माता-पिता के हाथ का सहारा लेकर चलने का प्रयास करता है उसी प्रकार इस अवस्था में साधक गुरु का आश्रय लेकर साधना के क्षेत्र में अपना कदम रखता है । इसे हम जैन दर्शन के पाँचवें विरत सम्यकदृष्टि गुणस्थान के समकक्ष मान सकते हैं । पदवीमांसा का अर्थ है कदम रखना, अतः यह आध्यात्मिक क्षेत्र में कदम रखना है । ४. ऋजुगत- बुद्धघोष ने यह माना है कि जब बालक पैरों पर बिना सहारे के चलने लगता है तब ऋजुगत अवस्था होती है किन्तु मेरी दृष्टि में यह गृहस्थ साधना में ही एक आगे बढ़ा हुआ चरण है, जिसमें साधक स्वतन्त्र रूप से आध्यात्मिक साधना में आगे बढ़ता है । जैन परम्परा में जो श्रावक प्रतिमाओं की भूमि है, सम्भवत यह वैसी ही कोई अवस्था है । । १. दर्शन और चिन्तन (गुजराती), पृ० १०२२ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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