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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
और बौद्ध दोनों विचारणाओं के अनुसार साधना के विकास की यह अवस्था अत्यन्त ही दुष्कर होती है।
७. अभिमुखी-प्रज्ञापारमिता के आश्रय से बोधिसत्व (साधक) संसार और निर्वाण दोनों के प्रति अभिमुख होता है। यथार्थ प्रज्ञा के उदय से उसके लिए संसार और निर्वाण में कोई अन्तर नहीं होता। अब संसार उसके लिए बन्धक नहीं रहता। निर्वाण के अभिमुख होने से यह भूमि अभिमुखी कही जाती है । इस भूमि में प्रज्ञापारमिता की साधना पूर्ण होती है। चौथी, पांचवीं और छठी भूमियों में अधिप्रज्ञा शिक्षा होती है अर्थात् प्रज्ञा का अभ्यास होता है, जो इस भूमि में पूर्णता को प्राप्त होता है । तुलना की दृष्टि से यह भूमि सूक्ष्म सम्पराय नामक बारहवें गुणस्थान की पूर्वावस्था के समान है।
८. दूरंगमा-इस भूमि में बोधिसत्व साधक एकान्तिक मार्ग अर्थात् शाश्वतवाद उच्छेदवाद आदि से बहुत दूर हो जाता है । ऐसे विचार उसके मन में उठते नहीं है। जैन परिभाषा में यह आत्मा की पक्षातिक्रान्त अवस्था है, संकल्पशून्यता है, साधना की पूर्णता है, जिसमें साधक को आत्म-साक्षात्कार होता है । बौद्ध-विचार के अनुसार भी इस अवस्था में बोधिसत्व की साधना पूर्ण हो जाती है। वह निर्वाण-प्राप्ति के सर्वथा योग्य हो जाता है। इस भमि में बोधिसत्व का कार्य प्राणियों को निर्वाण-मार्ग में लगाना होता है । इस अवस्था में वह सभी पारमिताओं का पालन करता है एवं विशेष रूप से उपाय कौशल्य पारमिता का अभ्यास करता है। यह भूमि जैन-विचारणा के बारहवें गुणस्थान के अन्तिम चरण की साधना को अभिव्यक्त करती है, क्योंकि जैन विचारणा के अनुसार भी इस अवस्था में आकर साधक निर्वाण-प्राप्ति के सर्वथा योग्य होता है ।
९. अचला-संकल्पशून्यता एवं विषयरहित अनिमित्त विहारी समाधि की उपलब्धि से यह भूमि अचल कहलाती है। विषयों के अभाव से चित्त संकल्पशून्य होता है और संकल्पशून्य होने से अविचल होता है, क्योंकि विचार एवं विषय ही चित्त को चंचलता के कारण होते हैं, जबकि इस अवस्था में उनका पूर्णतया अभाव होता है । चित्त के संकल्पशून्य होने से इस अवस्था में तत्त्व का साक्षात्कार हो जाता है। यह भूमि तथा अग्निम साधुमती और धर्ममेधा भूमि जैन-विचारधारा के सयोगीकेवली नामक तेरहवें गुणस्थान के समकक्ष मानी जा सकती है।
१०. साधुमती-इस भूमि में बोधिसत्त्व का हृदय सभी प्राणियों के प्रति शुभ भावनाओं से परिपूर्ण होता है। इस भूमि का लक्षण है सत्वपाक अर्थात् प्राणियों के बोधिबीज को परिपुष्ट करना। इस भूमि में समाधि की विशुद्धता एवं प्रतिसंविन्मति ( विश्लेषणात्मक अनुभव करनेवाली बुद्धि ) की प्रधानता होती है। इस अवस्था में बोधिसत्त्व में दूसरे प्राणियों के मनोगत भावों को जानने की क्षमता उत्पन्न हो जाती है ।
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