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आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास
४७५ २. प्रमुदिता-इसमें अधिशील शिक्षा होती है। यह शीलविशुद्धि के प्रयास की अवस्था है । इस भूमि में बोधिसत्व लोकमंगल की साधना करता है । इसे बोधि प्रस्थान चित्त की अवस्था कहा जा सकता है। बोधिप्रणिधिचित्त मार्गज्ञान है, लेकिन बोधि प्रस्थानचित्त मार्ग में गमन की प्रक्रिया है। जैन परम्परा में इस भूमि की तुलना पंचम एवं षष्ठ विरताविरत एवं सर्वविरत सम्यक्दृष्टि नामक गुणस्थान से की जा सकती है। इस भूमि का लक्षण है कर्मों की अविप्रणाशव्यवस्था अर्थात् यह ज्ञान कि प्रत्येक कर्म का भोग अनिवार्य है, कर्म अपना फल दिये बिना नष्ट नहीं होता। बोधिसत्व इस भूमि में शील-पारमिता का अभ्यास करता है। वह अपने शील को विशुद्ध करता है, सूक्ष्म से सूक्ष्म अपराध भी नहीं करता। पूर्णशीलविशुद्धि की अवस्था में वह अग्रिम विमला विहार-भूमि में प्रविष्ट हो जाता है ।
३. विमला-इस अवस्था में बोधिसत्व (साधक) अनैतिक आचरण से पूर्णतया मुक्त होता है । दुःखशीलता के मनोविकार का मल पूर्णतया नष्ट हो जाता है, इसलिए इसे विमला कहते हैं। यह आचरण की पूर्ण शुद्धि की अवस्था है । इस भूमि में बोधिसत्व शान्ति पारमिता का अभ्यास करता है। यह अधिचित्त शिक्षा है। इस भूमि का लक्षण है-ध्यान-प्राप्ति;इसमें अच्युत समाधि का लाभ होता है। जैन विचारणा में इस भूमि की तुलना अप्रमत्तसंयत गुणस्थान नामक सप्तम गुणस्थान से की जा सकती है।
४. प्रभाकरी-इस भूमि में अवस्थित साधक को समाधिबल से अप्रमाण धर्मों का अवभास या साक्षात्कार प्राप्त होता है एवं साधक बोधि पाक्षीय धर्मों की परिणामना लोकहितके लिए संसार में करता है अर्थात् वह बुद्ध का ज्ञानरूपी प्रकाश लोक में फैलाता है. इसलिए इस भूमि को प्रभाकरी कहा जाता है । यह भी जैनों के अप्रमत्तसंयत नामक सातवें गुणस्थान के समकक्ष है ।
५. अचिष्मती-इस भूमि में क्लेशावरण और ज्ञेयावरण का दाह होता है । आध्यात्मिक विकास की यह भूमि अपूर्वकरण नामक आठवें गुणस्थान से तुलनीय है, क्योंकि जिस प्रकार इस भूमि में साधक क्लेशावरण और ज्ञेयावरण का दाह करता है, उसी प्रकार आठवें गुणस्थान में भी साधक ज्ञानावरणीय आदि आठ कर्मों का रसधात एवं संक्रमण करता है. इसमें साधक वीर्य पारमिता का अभ्यास करता है ।
६. सुदुर्जया-इस भूमि में सत्त्वपरिपाक अर्थात् प्राणियों के धार्मिक भावों को परि पुष्ट करते हुए एवं स्वचित्त की रक्षा करते हुए दुःख पर विजय प्राप्त की जाती है । यह कार्य अति दुष्कर होने से इस भूमि को 'दुर्जया' कहते हैं । इस भूमि में प्रतीत्यसमुत्पाद के साक्षात्कार के कारण भवापत्ति (ऊर्ध्व लोकों में उत्पत्ति) विषयक संक्लेशों से अनुरक्षण हो जाता है । बोधिसत्व इस भूमि में ध्यान पारमिता का अभ्यास करता है । इस भूमि की तुलना ८वें से ११वें गुणस्थान तक की अवस्था से की जा सकती है । जैन
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