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________________ ४७४ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन प्रस्थान करने की तैयारी में होता है । साधारण रूप में आठवें से बारहवें गुणस्थान तक की सभी अवस्थाएँ इस भूमि के अन्तर्गत् आती हैं । ४. अर्हतावस्था-जब साधक (भिक्षु) उपर्युक्त दसों संयोजनों या बन्धनों को तोड़ देता है, तब वह अर्हतावस्था को प्राप्त कर लेता है । सम्पूर्ण संयोजनों के समाप्त हो जाने के कारण वह कृतकार्य हो जाता है अर्थात् उसे कुछ करणीय नहीं रहता, यद्यपि वह संघ की सेवा के लिए क्रियाएँ करता है ।' समस्त बन्धनों या संयोजनों के नष्ट हो जाने के कारण उसके समस्त क्लेशों या दुःखों का प्रहाण हो जाता है । वस्तुतः यह जीवन्मुक्ति की अवस्था है । जैन-विचारणा में इस अर्हतावस्था की तुलना सयोगीकेवली गुणस्थान से की जा सकती है । दोनों विचारधाराएँ इस भूमि के सम्बन्ध में काफी निकट हैं । महायान और आध्यात्मिक विकास महायान सम्प्रदाय में दशभूमिशास्त्र के अनुसार आध्यात्मिक विकास की निम्न दस भूमियाँ (अवस्थाएँ) मानी गयी हैं-१. प्रमुदिता, २. विमला, ३. प्रभाकरी ४. अचिष्मती, ५. सुदुर्जया, ६. अभिमुक्ति, ७. दूरंगमा, ८. अचला, ९. साधुमति और १०. धर्ममेधा । हीनयान से महायान की ओर संक्रमण-काल में लिखे गये महावस्तु नामक ग्रन्थ में १. दुरारोहा, २. बद्धमान, ३. पुष्पमण्डिता, ४. रुचिरा ५. चित्त विस्तार ६. रूपमति, ७. दुर्जया, ८. जन्मनिदेश, ९, यौवराज और १०. अभिषेक नामक जिन दस भूमियों का विवेचन है, वे महायान की पूर्वोक्त दस भूमियों से भिन्न हैं । यद्यपि महायान का दस भूमियों का सिद्धान्त इसी मूलभूत धारणा के आधार पर विकसित हुआ है, तथापि महायान ग्रन्थों में कहीं दस से अधिक भूमियों का विवेचन मिलता है । असंग के महायान सूत्रालंकार में और लंकावतारसूत्र में इन भूमियों की संख्या ११ है । महायान सूत्रालंकार में प्रथम भूमि को अधिमुक्ति चर्याभूमि कहा गया है और अन्तिम बुद्धभूमि या धर्ममेधा का भूमियों की संख्या में परिगणन नहीं किया गया है । इसी प्रकार लंकावतारसूत्र में धर्ममेधा और तथागत भूमियों (बुद्धभूमि) को अलग-अलग माना गया है। १. अषिमुक्तचर्याभूमि-यों तो अन्य ग्रन्थों में प्रमुदिता को प्रथम भूमि माना गया है, लेकिन असंग प्रथम अधिमुक्त-चर्या भूमि का विवेचन करते हैं, तत्पश्चात् प्रमुदिता भूमि का अधिमुक्त चर्याभूमि में साधक को पुद्गल नैरात्म्य और धर्मनैरात्म्य का अभिसमय (यथार्थज्ञान) होता है । यह दृष्टि-विशुद्धि की अवस्था है । इस भूमि की तुलना जैन' विचारधारा में चतुर्थ अविरत सम्यकदृष्टि गुणस्थान से की जा सकती है । इसे बोधिप्रणिधिचित्त को अवस्था कहा जा सकता है । बोधिसत्व इस भूमि में दान-पारमिता का अभ्यास करता है। १. देखिए-विनयपिटक, चुल्लवग्ग, ४।४ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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