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जैन आचार के सामान्य नियम . होकर मात्र संज्वलन चौक शेष रहता है । जैन परम्परा की इसी बात को बौद्ध परम्परा यह कहकर प्रकट करती है कि स्रोतापन्न अवस्था में कामधातु (वासनाएँ) तो समाप्त हो जाती हैं, लेकिन रूपधातु (आस्रव अर्थात् राग-द्वेष एवं मोह) शेष रहती है ।
२. सकृदागामी भूमि-इस भूमि में साधना का मुख्य लक्ष्य 'आस्रव-क्षय' ही होता है । सकृदागामो भूमि के अन्तिम चरण में साधक पूर्ण रूप से कामराग (वासनाएँ) और प्रतिध (द्वष) को समाप्त कर देता है और अनागामी भूमि की दिशा में आगे बढ़ जाता है ।
सकृदागामी भूमि की तुलना जैन-दर्शन के आठवें गुण स्थान से की जा सकती है । दोनों दृष्टिकोणों के अनुसार साधक इस अवस्था में बन्धन के मूल कारण राग-द्वष-मोह का प्रहाण करता है और विकास की अग्रिम अवस्था, जिसे जैन धर्म क्षीण-मोह गुणस्थान और बौद्ध विचार अनागामी भूमि कहता है, में प्रविष्ट हो जाता है । जैनधर्म के अनुसार जो साधक इन गुणस्थानों की साधनावस्था में ही आयु पूर्ण कर लेता है, वह अधिक से अधिक तीसरे जन्म में निर्वाण प्राप्त कर लेता है, जब कि बौद्धधर्म के अनुसार सकृदागामी भूमि के साधनाकाल में मृत्यु को प्राप्त साधक एक बार ही पुनः संसार में जन्म ग्रहण करता है । दोनों विचारधाराओं का इस सन्दर्भ में मतैक्य है कि जो साधक इस साधना को पूर्ण कर लेता है वह अनागामी या क्षीणमोह गुणस्थान की भूमिका को प्राप्त कर उसी जन्म में अर्हत्व एवं निर्वाण की प्राप्ति कर लेता है।
३.अनागामीभूमि-जब साधक प्रथम स्रोतापन्न भूमि में सत्कायदृष्टि, विचिकित्सा और शीलवत परामर्श इन तीनों संयोजनों तथा सकृदागामी भूमि में कामराग और प्रतिध इन दो संयोजनों को, इस प्रकार पाँच भूभागीय संयोजनों को नष्ट कर देता है, तब वह अनागामी भूमि को प्राप्त हो जाता है। इस अवस्था को प्राप्त साधक यदि विकास की दिशा में आगे नहीं बढ़ता है तो मृत्यु के प्राप्त होने पर ब्रह्मलोक में जन्म लेकर वहीं से सीधे निर्वाण प्राप्त करता है ।
वैसे साधनात्मक दिशा में आगे बढ़नेवाले साधक का कार्य इस अवस्था में यह होता है कि वह शेष पाँच उढ्डभागीय संयोजन-१. रूप राग, २. अरूप राग, ३. मान, ४. औद्धत्य और ५. अविद्या के नाश का प्रयास करे। जब साधक इन पांचों संयोजनों का भी नाश कर देता है, तब वह विकास को अग्रिम भूमिका अर्हतावस्था को प्राप्त करता है । जो साधक इस अग्रिम भूमि को प्राप्त करने के पूर्व ही साधनाकाल में मृत्यु को प्राप्त हो जाते हैं, वे ब्रह्मलोक में जन्म लेकर वहाँ शेष पाँच संयोजनों के नष्ट हो जाने पर निवाणि प्राप्त करते हैं । उन्हें पुनः इस लोक में जन्म लेने की आवश्यकता नहीं रहती। अनागामी भूमि की तुलना जैनों के क्षीणमोहगुणस्थान से की जा सकती है लेकिन यह तुलना अनागामी भूमि के उस अन्तिम चरण में ही समुचित होती है जब अनागामी भूमि का साधक दसों संयोजनों के नष्ट हो जाने पर आगे की अर्हत् भूमि में
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