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________________ ४७२ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन अवस्था से की जा सकतो है । होनयान सम्प्रदाय के अनुसार सम्यकदृष्टिसम्पन्न निर्वाणमार्ग पर आरूढ़ साधक को अपने लक्ष्य अर्हत् अवस्था को प्राप्त करने तक इन चार भूमियों (अवस्थाओं) को पार करना होता है- १. स्रोतापन्न भूमि, २. सकृदागामी भूमि, ३. आनागामी भूमि और ४. अर्हत् भूमि । प्रत्येक भूमि में दो अवस्थाएँ होती हैं- १. साधक की अवस्था या मार्गावस्था तथा २, सिद्धावस्था या फलावस्था । १. स्रोतापन्न भूमि-स्रोतापन्न का शाब्दिक अर्थ होता है धारा में पड़नेवाला, अर्थात् साधक साधना अथवा कल्याणमार्ग के प्रवाह में गिरकर अपने लक्ष्य की ओर बढ़ रहा है । बौद्ध-विचारधारा के अनुसार जब साधक निम्न तीन संयोजनों (बंधनों) का क्षय कर देता है, तब वह इस अवस्था को प्राप्त करता है-१. सत्काय दृष्टि-देहात्मबुद्धि अर्थात् शरीर को आत्मा मानना, उसके प्रति ममत्व या मेरापन रखना (स्वकाये दृष्टिः-चन्द्रकीर्ति)(२) विचिकित्सा-सन्देहात्मकता तथा (३) शीलवत परामर्श-अर्थात् व्रत उपवास आदि में आसक्ति । दूसरे शब्दों में मात्र कर्मकाण्ड के प्रति रुचि । इस प्रकार जब साधक दार्शनिक मिथ्या दृष्टिकोण ( सत्कायदृष्टि ) एवं कर्मकाण्डात्मक मिथ्यादृष्टिकोण (शीलवत परामर्श) का त्याग कर सर्व प्रकार के संशयों (विचिकित्सा ) की अवस्था को पार कर जाता है, तब वह इस स्रोतापन्न भूमि पर आरूढ़ हो जाता है । दार्शनिक एवं कर्मकाण्डात्मक मिथ्या दृष्टिकोणों एवं सन्देहशीलता के समाप्त हो जाने के कारण इस भूमि से पतन को सम्भावना नहीं रहती है और साधक निर्वाण की दिशा में अभिमुख हो आध्यात्मिक दिशा में प्रगति करता है। स्रोतापन्न साधक निम्न चार अंगों से सम्पन्न होता है१. बुद्धानुस्मृति-बुद्ध में निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है । २. धर्मानुस्मृति-धर्म में निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है । ३. संघानुस्मृति-संघ में निर्मल श्रद्धा से युक्त होता है। ४. शील एवं समाधि से युक्त होता है। स्रोतापन्न अवस्था को प्राप्त साधक विचार (दृष्टिकोण) एवं आचार दोनों से शुद्ध होता है। जो साधक इस स्रोतापन्न अवस्था को प्राप्त कर लेता है, वह अधिक से अधिक सात जन्मों में निर्वाण-लाभ कर ही लेता है। जैन-विचारधारा के अनुसार क्षायिक-सम्यक्त्वसे युक्त चतुर्थसम्यकदृष्टि गुणस्थान से सातवें अप्रमत्त-संयतगुणस्थान तक की जो अवस्थाएँ हैं, उनकी तुलना स्रोतापन्न अवस्था से की जा सकती है, क्योंकि जैन-विचारधारा के अनुसार भी इन अवस्थाओं में साधक दर्शन (दृष्टिकोण) विशुद्धि एवं चारित्र (आचार) विशुद्धि से युक्त होता है । इन अवस्थाओं में सातवें गुणस्थान तक वासनाओं का प्रकटन तो समाप्त हो जाता है लेकिन उनके बीज (राग-द्वेष एवं मोह) सूक्ष्म रूप में बने रहते हैं अर्थात् कषायों के तीनों चौक समाप्त १. पं० सुखलालजी ने भी इसे मार्गानुसारी अवस्था से तुलनीय माना है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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