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________________ जैन आचार के सामान्य नियम ४७१ इ, उ, ऋ, ल, को मध्यम स्वर से उच्चारित करने में लगता है उतने ही समय तक इस गुणस्थान में आत्मा रहती है । यह गुण स्थान अयोग केवली गुणस्थान कहा जाता है, इसका अर्थ यह है कि इस अवस्था में समन कायिक, वाचिक और मानसिक व्यापार अर्थात् योग का पूर्णतः निरोध हो जाता है । वह योग संन्यास है, यही सर्वांगीण पूर्णता है, चरम आदर्श की उपलब्धि है । बाद की जो अवस्था है उसे जैन विचारकों ने मोक्ष, निर्वाण, शिवपद एवं निर्गुण-ब्रह्म-स्थिति कहा है।' बौद्ध-साधना में आध्यात्मिक विकास को भूमियाँ जैन और बौद्ध साधना पद्धतियों में निर्वाण एवं मुक्ति के स्वरूप को लेकर मतवैभिन्नय भले ही हो, फिर भी दोनों का आदर्श है निर्वाण की उपलब्धि । साधक जितना अधिक निर्वाण की भूमिका के समीप होता है, उतना ही अधिक आध्यात्मिक विकास की सीमा का स्पर्श करता है। जैन-परम्परा में आध्यात्मिक विकास की १४ भूमियाँ मानी गयी हैं। बौद्ध परम्परा में आध्यात्मिक विकास की इन भूमियों की मान्यता को लेकर उसके अपने ही सम्प्रदायों में मत-वैभिन्नय है। श्रावकयान अथवा हीनयान सम्प्रदाय, जिसका लक्ष्य वैयक्तिक निर्वाण अथवा अर्हत्-पद की प्राप्ति है, आध्यात्मिक विकास की चार भूमियाँ मानता है; जबकि महायान सम्प्रदाय, जिसका चरम लक्ष्य बुद्धत्व की प्राप्ति के द्वारा लोक-मंगल की साधना है, आध्यात्मिक विकास की दस भूमियाँ मानता है। यहाँ हम दोनों ही सम्प्रदायों के दृष्टिकोणों को देखने का प्रयास करेंगे । हीनयान और आध्यात्मिक विकास प्राचीन बौद्ध धर्म में भी जैनधर्म के समान संसारी प्राणियों की दो श्रेणियाँ मानी गयी है-१. पृथक् जन या मिथ्यादृष्टि तथा २. आर्य या सम्यक्दृष्टि । मिथ्यादृष्टित्व अथवा पृथक्जन अवस्था का काल प्राणी के अविकास का काल है। विकास का काल तो तभी प्रारम्भ होता है, जब साधक सम्यक दृष्टिकोण को ग्रहण कर निर्वाणगामी मार्ग पर आरूढ़ हो जाता है। फिर भी सभी पृथक् जन या मिथ्यादृष्टि प्राणी समान नहीं होते । उनमें तारतम्य होता है। कुछ व्यक्ति ऐसे होते हैं जिनका दृष्टिकोण मिथ्या होने पर भी आचरण कुछ सम्यक् प्रकार का होता है तथा वे यथार्थ दृष्टि के अति निकट होते हैं । अतः पृथक्जन भूमि को दो भागों में बाँटा गया है-१. प्रथम अंध पृथक्जन भूमि, यह अज्ञान एवं मिथ्या दृष्टित्व की तीव्रता की अवस्था है एवं २. कल्याण पृथक्जन भूमि । मज्झिम निकाय में इस भूमि का निर्देश है, जिसे धर्मानुसारी या श्रद्धानुसारी भूमि भी कहा गया है। इस भूमि में साधक निर्वाण-मार्ग की ओर अभिमुख तो होता है, लेकिन उसे प्राप्त नहीं करता। इसकी तुलना जैनधर्म में साधक की मार्गानुसारी १. ज्ञानसार त्यागाष्टक (दर्शन और चिन्तन, भाग २, पृ० २७५ पर उद्धृत)। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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