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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
में मानसिक, वाचिक और कायिक क्रियाएँ होती हैं और उनके कारण बन्धन भी होता है, लेकिन कषायों के अभाव के कारण टिकाव नहीं होता। पहले क्षण में बन्ध होता है, दूसरे क्षण में उसका विपाक (प्रदेशोदय के रूप में) होता है और तीसरे क्षण में वे कर्म परमाणु निर्जरित हो जाते हैं। इस अवस्था में योगों के कारण होनेवाले बन्धन और विपाक की प्रक्रिया को कर्म-सिद्धान्त की मात्र औपचारिकता ही समझना चाहिए । इन योगों के अस्तित्व के कारण ही इस अवस्था को सयोगीकेवली गुणस्थान कहा जाता है । यह साधक और सिद्ध के बीच की अवस्था है। इस अवस्था में स्थित व्यक्ति को जैनदर्शन में अर्हत्, सर्वज्ञ एवं केवली कहा जाता है। यह वेदान्त के अनुसार जीवनमुक्ति या सदेह-मुक्ति की अवस्था है । १४. अयोगीकेवली गुणस्थान
सयोगी केवली गुणस्थान में यद्यपि आत्मा आध्यात्मिक पूर्णता को प्राप्त कर लेती है, फिर भी आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध बना रहने से शारीरिक उपाधियाँ तो लगी रहती है । प्रश्न होता है कि इन शारीरिक उपाधियों को समाप्त करने का प्रयास क्यों नहीं किया जाता ? इसका एक उत्तर यह है कि १२वें गुणस्थान में साधक की सारी इच्छाएँ समाप्त हो जाती है, उसमें न जीने की कामना होती है, न मृत्यु की। वह शारीरिक उपाधियों को नष्ट करने का भी कोई प्रयास नहीं करता। दूसरे साधना के द्वारा उन्हीं कर्मों का क्षय हो सकता है जो उदय में नहीं आये हैं अर्थात् जिनका फलविपाक प्रारम्भ नहीं हुआ है । जिन कर्मों का फलभोग प्रारम्भ हो जाता है उनको फलभोग की मध्यावस्था में परिवर्तित या क्षीण नहीं किया जा सकता । वेदान्तिक विचारणा में भी यह तथ्य स्वीकृत है। लोकमान्य तिलक लिखते है-'जिन कर्म-फलों का उपभोग आरम्भ होने से यह शरीर एवं जन्म मिला उनके भोग बिना छुटकारा नहीं है-प्रारब्धकर्मणा भोगादेव क्षयः ।' नाम (शरीर), गोत्र एवं आयुष्य कर्म का विपाक साधक के जन्म से ही प्रारम्भ हो जाता है। साथ ही शरीर की उपस्थिति तक शारीरिक अनुभूतियों (वेदनीय) का भी होना आवश्यक है। अतः पुरुषार्थ एवं साधना के द्वारा इनमें कोई परिवर्तन करना सम्भव नहीं। यही कारण है कि जीवन्मुक्त भी शारीरिक उपाधियों का निष्काम भाव से उनकी उपस्थिति तक भोग करता रहता है। लेकिन जब वह इन शारीरिक उपाधियों की समाप्ति को निकट देखता है तो शेष कर्मावरणों को समाप्त करने के लिए यदि आवश्यक हो तो प्रथम केवली समद्घात करता है और तत्पश्चात सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान के द्वारा मानसिक, वाचिक एवं कायिक व्यापारों का निरोध कर लेता है तथा समुच्छिन्नक्रियाप्रतिपाति शुक्लध्यान द्वारा निष्प्रकम्प स्थिति को प्राप्त करके शरीर त्याग कर निरुपाधि सिद्धि या मुक्ति प्राप्त कर लेता है। इस गुणस्थान का स्थितिकाल अत्यन्त अल्प होता है। जितना समय पाँच हस्व स्वरों अ,
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