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जैन आचार के सामान्य नियम
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है । उसके जीवन में नैतिकता और अनैतिकता के मध्य होनेवाला संघर्ष सदैव के लिए समाप्त हो जाता है, क्योंकि संघर्ष का कारण कोई भी वासना शेष नहीं रहती। उसकी समस्त वासनाएँ, समस्त आकांक्षाएँ क्षीण हो चुकी होती हैं। ऐसा साधक राग-द्वेष से भी पूर्णतः मुक्त हो जाता है, क्योंकि राग-द्वेष का कारण मोह समाप्त हो जाता है । इस नैतिक पूर्णता को अवस्था को यथाख्यातचारित्र कहते हैं । जैन विचारणा के अनुसार मोहकर्म अष्ट कर्मों में प्रधान है। यह बन्धन में डालनेवाले कर्मों की सेना का प्रधान सेनापतिहै । इसके परास्त हो जाने पर शेष कर्म भी भागने लग जाते हैं। मोह कर्म के नष्ट हो जाने के पश्चात् थोड़े ही समय में दर्शनावरण , ज्ञानावरण, अन्तराय ये तीनों कर्म भी नष्ट होने लगते हैं। क्षायिक मार्ग पर आरूढ़ साधक १०३ गुणस्थान के अन्तिम चरण में उस अवशिष्ट सूक्ष्म लोभांश को नष्ट कर इस १२वें गुणस्थान में आते हैं और एक अन्तर्मुहूर्त जितने अल्प काल तक इसमें स्थित रहते हुए इसके अन्तिम चरण में ज्ञानवरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामक तीनों कर्मों के आवरणों को नष्ट कर अनन्तज्ञान, अनन्तदर्शन और अनन्तशक्ति से युक्त हो विकास को अग्रिम श्रेणी में चले जाते हैं। ___ विकास की इस श्रेणी में पतन का कोई भयहीनहीं रहता । व्यक्ति विकास की अग्रिम कक्षाओं में ही बढ़ता जाता है। यह नैतिक पूर्णता की अवस्था है और व्यक्ति जब यथार्थ नैतिक पूर्णता को प्राप्त कर लेता है तो आध्यात्मिक पूर्णता को भी उपलब्ध हो जाती है। विकास की शेष दो श्रेणियाँ उसी आध्यात्मिक पूर्णता की उपलब्धि से सम्बन्धित हैं । इस प्रकार हम देखते हैं कि जैन नैतिकता में आध्यात्मिकता, धर्म और नैतिकता तीनों अलग-अलग तथ्य न होकर एक दूसरे से संयोजित हैं । नैतिकता क्रिया है, आचरण है और आध्यत्मिकता उसकी उपलब्धि या फल है । विकास की यह अवस्था नैतिकता के जगत् से आध्यात्मिक के जगत् में संक्रमित होने की है। यहाँ नैतिकता की सोमा परिसमाप्त होती है और विशुद्ध आध्यात्मिकता का क्षेत्र प्रारम्भ हो जाता है । १३. सयोगीकेवली गुणस्थानइस श्रेणी में आनेवाला साधक अब साधक नहीं रहता, क्योंकि उसके लिए कुछ भी शेष नहीं रह जाता। लेकिन उसे सिद्ध भी नहीं कहा जा सकता, क्योंकि उसकी आध्यात्मिक पूर्णता में अभी कुछ कमी है । अष्ट कर्मों में से ज्ञानावरण, दर्शनावरण, मोह और अन्तराय ये चार घाती कर्म तो क्षय हो हो जाते हैं, लेकिन चार अघाती कर्म शेष रहते हैं । आयु, नाम, गोत्र और वेदनीय इन चार कर्मों के बने रहने के कारण आत्मा देह से अपने सम्बन्ध का परित्याग नहीं कर पाती । यहाँ बंधन के मिथ्यात्व, अविरति, कषाय, प्रमाद
और योग इन पाँच कारणों में योग के अतिरिक्त शेष चार कारण तो समाप्त हो जाते हैं, लेकिन आत्मा का शरीर के साथ सम्बन्ध बना रहने के कारण कायिक, वाचिक, और मानसिक व्यापार, जिन्हें जैन दर्शन में 'योग' कहा जाता है, होते रहते हैं । इस अवस्था
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