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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
तो उन्हें कितना ही दबाकर आगे बढ़ा जाये उनके प्रकटन को अधिक समय के लिए रोका नहीं जा सकता, वरन् जैसे-जैसे दमन बढ़ता जाता है, वैसे-वैसे उनके अधिक वेग से विस्फोटित होने की सम्भावना बढ़ती जाती है। यही कारण है कि जो साधक उपशम या दमन मार्ग से आध्यात्मिक विकास करता, है उसके पतन की सम्भावना निश्चित होती है । यह श्रेणी वासनाओं के दमन की पराकाष्ठा है, अतः उपशम या निरोध-मार्ग का साधक स्वल्पकाल ( ४८ मिनट ) तक इस श्रेणी में रहकर निरुद्ध वासनाओं एवं कषायों के पुनः प्रकटन के फलस्वरूप नीचे गिर जाता है । आचार्य नेमीचन्द्र गोम्मटसार में लिखते हैं कि जिस प्रकार शरद् ऋतु में सरोवर का पानी मिट्टी के नीचे जम जाने से स्वच्छ दिखाई देता है, लेकिन उसकी निर्मलता स्थायी नहीं होती, मिट्टी के कारण समय आने पर वह पुनः मलिन हो जाता है, उसी प्रकार जो आत्माएँ मिट्टी के समान कर्ममल के दब जाने से नैतिक प्रगति एवं आत्म-शुद्धि की इस अवस्था को प्राप्त करती हैं वे एक समयावधि के पश्चात् पुनः पतित हो जाती हैं।' अथवा जिस प्रकार राख में दबी हुई अग्नि वायु के योग से राख के उड़ जाने पर पुनः प्रज्वलित होकर अपना काम करने लगती है, उसी प्रकार दमित वासनाएँ संयोग पाकर पुनः प्रज्वलित हो जाती हैं और साधक पुनः पतन की ओर चला जाता है । इस सम्बन्ध में गीता और जैनाचारदर्शन का मतैक्य है । दमन अथवा निरोध एक सीमा के पश्चात् अपना मूल्य खो देते हैं। गीता कहती है-दमन या निरोध से विषयों का निर्वतन तो हो जाता है, लेकिन विषयों का रस अर्थात् वैषयिक वृत्ति का निर्वतन नहीं होता। वस्तुतः उपशमन की प्रक्रिया में संस्कार निमूल नहीं होते हैं, संस्कारों के सर्वथा निर्मूल न होने से उनकी परम्परा समय पाकर पुनः प्रवृद्ध हो जाती है, । इसलिए कहा गया है कि उपशम श्रेणी या दमन के द्वारा आध्यात्मिक विकास करनेवाला साधक साधना के उच्चस्तर पर पहुँचकर भी पतित हो जाता हैं । यह ग्यारहवाँ गुणस्थान पुनः पतन का है। १२. क्षीणमोह गुणस्थान
जो साधक उपशम या दमम विधि से आगे बढ़ते हैं वे ११वें गुणस्थान तक पहुँचकर पुनः पतित हो जाते हैं, लेकिन जो साधक क्षायिक विधि अर्थात् वासनाओं एवं कषायों का क्षय करते हुए, उन्हें निर्मूल करते हुए विकास करते हैं, वे १०वें गुणस्थान में रहे हुए अवशिष्ट सूक्ष्म लोभ को भी नष्ट कर सीधे १२वें गुणस्थान में आ जाते हैं । इस वर्ग में आनेवाला साधक मोह-कर्म की २८ प्रवृतियों को पूर्णरूपेण समाप्त कर देता है
और इसी कारण इस गुणस्थान को क्षीणमोह गुणस्थान कहा गया है। यह नैतिक विकास की पूर्ण अवस्था है । यहाँ पहुँचने पर साधक के लिए कोई नैतिक कर्तव्य शेष नहीं रहता
१. गोम्मटसार, गाथा ६१ ।
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