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जैन आचार के सामान्य नियम
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(उपशान्त) कर देता है और उसमें मात्र सूक्ष्म लोभ शेष रहता है । जैन पारिभाषिक शब्दों में मोहनीय कर्म की २८ कर्म-प्रकृतियों में से २७ कर्म-प्रकृतियों के क्षय या उपशम हो जाने पर जब मात्र संज्वलन लोभ शेष रहता है तब साधक इस गुणस्थान में पहुँचता है । इस गुणस्थान को सूक्ष्म सम्पराय इसलिए कहा जाता है कि इसमें आध्यात्मिक पतन के कारणों में मात्र सूक्ष्म लोभ ही शेष रहता है। लोभ के सूक्ष्म अंश के रहने के कारण ही इसका नाम सम्पराय है। डाक्टर टाँटिया के शब्दों में आध्यात्मिक विकास की उच्चता में रहे हुए इस सूक्ष्मलोभ की व्याख्या अवचेतन रूप में शरीर के प्रति रहे हुए
राग के अर्थ में की जा सकती है।' ११. उपशान्त-मोह गुणस्थान
जब अध्यात्म-मार्ग का साधक पूर्व अवस्था में रहे हुए सूक्ष्म लोभ को भी उपशान्त कर देता है, तब वह इस विकास-श्रेणी पर पहुँचता है। लेकिन आध्यात्मिक विकास में अग्रसर साधक के लिए यह अवस्था बड़ी खतरनाक है। विकास की इस श्रेणी में मात्र वे ही आत्माएँ आती हैं जो वासनाओं का दमन कर या उपशम श्रेणी से विकास करती हैं । जो आत्माएँ वासनाओं को सर्वथा निर्मूल करते हुए क्षायिक की श्रेणी से विकास करती हैं, वे इस श्रेणी में न आकर सीधे बारहवें गुणस्थान में जाती हैं । यद्यपि यह नैतिक विकास की एक उच्चतम अवस्था है, लेकिन निर्वाण के आदर्श से संयोजित नहीं होने के कारण साधक का यहाँ से लौटना अनिवार्य हो जाता है। यह आत्मोत्कर्ष की वह अवस्था है, जहाँ से पतन निश्चित होता है । प्रश्न है, ऐसा क्यों होता है ? वस्तुतः नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास की दो विधियाँ हैं । एक क्षायिक विधि दूसरी उपशम विधि । क्षायिक विधि में वासनाओं एवं कषायों को नष्ट करते हुए आगे बढ़ा जाता है और उपशम विधि में उनको दबाकर आगे बढ़ा जाता है। एक तीसरी विधि इन दोनों के मेल से बनती है, जिसे क्षयोपशम विधि कहते हैं, जिसमें आंशिक रूप में वासनाओं एवं कषायों को नष्ट करके और आंशिक रूप में उन्हें दबाकर आगे बढ़ा जाता है। सातवें गुणस्थान तक तो साधक क्षायिक, औपशमिक अथवा उनके संयुक्त रूप क्षयोपशम विधि में से किसी एक द्वारा अपनी विकास यात्रा कर लेता है, लेकिन आठवें गुणस्थान से इन विधियों का तीसरा संयुक्त रूप समाप्त हो जाता है और साधक को क्षय और उपशम विधि में से किसी एक को अपनाकर आगे बढ़ना होता है । जो साधक उपशम विधि से वासनाओं एवं कषायों को दबाकर आगे बढ़ते हैं वे क्रमशः विकास करते हुए इस ग्यारहवीं उपशान्त मोह नामक श्रेणी में आते हैं। उपशम अथवा दमन के द्वारा आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास की यह अन्तिम अवस्था है। इस अवस्था में वासनाओं एवं कषायों का पूर्ण निरोध हो जाता है। लेकिन उपशम या निरोध साधना का सच्चा मार्ग नहीं है । उसमें स्थायित्व नहीं होता। दुष्प्रवृत्तियाँ यदि नष्ट नहीं हुई हैं १. स्टडीज़ इन जैन फिलासफी, पृ० २७८ ।
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