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________________ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन ) सात श्रेणियों तक अनात्म का आत्म पर अधिशासन होता है और अन्तिम में सात श्रेणियों आत्मा का अनात्म पर अधिशासन होता है । गुणस्थान का सिद्धान्त आत्म और अनात्मा के व्यावहारिक संयोग की अवस्थाओं का निदर्शन है। विशुद्ध अनात्म और विशुद्ध आत्म दोनों ही उसके क्षेत्र से परे हैं । ऐसे किसी उपनिवेश को कल्पना कीजिए जिस पर किसी विदेशी जाति ने अनादिकाल से आधिपत्य कर रखा हो और वहाँ की जनता को गुलाम बना लिया हो - यही प्रथम गुणस्थान है । उस पराधीनता की अवस्था में ही शासक वर्ग के द्वारा प्रदत्त सुविधाओं का लाभ उठा कर वहीं की जनता में स्वतन्त्रता की चेतना का उदय हो जाता है - यही चतुर्थ गुणस्थान है । बाद में वह जनता कुछ अधिकारों की माँग प्रस्तुत करती हैं और कुछ प्रयासों और परिस्थितियों के आधार पर उनकी यह माँग स्वीकृत होती है - यही पाँचवाँ गुणस्थान है । इसमें सफलता प्राप्त कर जनता अपने हितों की कल्पना के सक्रिय होने पर औपनिवेशिक स्वराज्य की प्राप्ति का प्रयास करती है और संयोग उसके अनुकूल होने से उनकी वह माँग भी स्वीकृत हो जाती हैयह छठा गुणस्थान है । औपनिवेशक स्वराज्य की इस अवस्था में जनता पूर्ण स्वतन्त्रताप्राप्ति का प्रयास करती है, उसके हेतु सजग होकर अपनी शक्ति का संचय करती हैयही सातवाँ गुणस्थान है । आगे वह अपनी पूर्ण स्वतन्त्रता का उद्घोष करती हुई उन विदेशियों से संघर्ष प्रारम्भ कर देती हैं । संघर्ष की प्रथम स्थिति में यद्यपि उसकीशक्ति सीमित होती है और शत्रु वर्ग भयंकर होता है, फिर भी अपने अद्भुत साहस और शौर्य से उसको परास्त करती है - यही आठवाँ गुणस्थान है। नवाँ गुणस्थान वैसा ही है जैसे युद्ध के बाद आन्तरिक अवस्था को सुधारने और छिपे हुए शत्रुओं का उन्मूलन किया जाता है । ९. अनिवृत्तिकरण (अनिवृत्ति बादर सम्पराय गुणस्थान) ४६६ आध्यात्मिक विकास के मार्ग पर गतिशील साधक जब कषायों में केवल बीजरूप सूक्ष्म लोभ ( संज्वलन) को छोड़कर शेष सभी कषायों का क्षय या उपशमन कर देता है तथा उसके कामवासनात्मक भाव, जिन्हें जैन परिभाषा में 'वेद' कहते हैं, समूलरूपेण नष्ट हो जाते हैं, तब आध्यात्मिक विकास की यह अवस्था प्राप्त होती । इस अवस्था में साधक में मात्र सूक्ष्म लोभ तथा हास्य, रति अरति, भय, शोक और घृणा के भाव शेष रहते हैं । ये भाव नोकषाय कहे जाते हैं । साधना की इस अवस्था में भी इन भावों या नोकषायों को समुपस्थिति से कषायों के पुनः उत्पन्न होने की सम्भावना रहती है, क्योंकि उनके कारण अभी शेष हैं । यद्यपि साधक का उच्चस्तरीय आध्यात्मिक विकास हो जाने से यह सम्भावना भी अत्यल्प ही होती है । १०. सूक्ष्म सम्पराय आध्यात्मिक साधना की इस अवस्था में साधक कषायों के कारणभूत हास्य, रति, अरति, भय, शोक और घृणा इन पूर्वोक्त ६ भावों को भी नष्ट (क्षय) अथवा दमित Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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