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________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास ४६५ अल्पकालिक एवं अल्पमात्रा में ही होता है । इस अवसर का लाभ उठाकर इस अवस्था में साधक उस प्रकटित आत्मशक्ति के द्वारा पूर्वबद्ध कर्मों की कालस्थिति एवं तीव्रता को कम करता है तथा कर्म-वर्गणाओं को ऐसे क्रम में रख देता है जिसके फलस्वरूप उनका समय के पूर्व ही फलभोग किया जा सके। साथ ही वह अशुभ फल देनेवाली कर्मप्रकृतियों को शुभ फल देनेवाली कर्म- प्रकृतियों में परिवर्तित करता है एवं उनका मात्र अल्पकालीन बंध करता है । इस प्रक्रिया को जैन पारिभाषिक शब्दों में १. स्थितिघात, २. रसघात, ३. गुण-श्रेणी, ४. गुण-संक्रमण और ५. अपूर्व स्थिति बंध कहा जाता है और यह समस्त प्रक्रिया 'अपूर्वकरण' के नाम से जानी जाती है । इस गुणस्थान का यह नामकरण इसी अपूर्वकरण नामक प्रक्रिया के आधार पर हुआ है । बंधनों से बँधा हुआ कोई व्यक्ति उन बंधनों में से अधिकांश के जीर्ण-शीर्ण हो जाने पर प्रसन्नता का अनुभव करता है । साथ ही पहले वह जहाँ अपनी स्वशक्ति से उन बंधनों को तोड़ने में असमर्थ था, वहीं अब वह अपनी स्वशक्ति से उन शेष रहे हुए बंधनों को तोड़ने की कोशिश करता है और बंधन मुक्ति की निकटता से प्रसन्न होता है । ठीक इसी प्रकार इस गुणस्थान में आने पर आत्मा कर्म रूप बंधनों का अधिकांश भाग में नाश हो जाने से एवं कषायों के विनष्ट होने से भावों की विशुद्ध रूप अपूर्व आनन्द की अनुभूति करता है तथा स्वतः ही शेष कर्मावरणों को नष्ट करने का सामर्थ्यं अनुभव कर उनके नष्ट करने के प्रयास करता है । इस अवस्था में साधक मुक्ति को अपने अधिकारक्षेत्र की वस्तु मान लेता है । सदाचरण की दृष्टि से वस्तुतः सच्चे पुरुषार्थ भाव का प्रकटीकरण इसी अवस्था में होता है । यद्यपि जैन दर्शन नियति ( देव ) और पुरुषार्थ के सिद्धान्तों के सन्दर्भ में एकान्तिक दृष्टिकोण नहीं अपनाता है, फिर भी यदि पुरुषार्थ और नियति के प्राधान्य की दृष्टि से गुणस्थान- सिद्धान्त पर विचार किया जाय तो प्रथम से सातवें गुणस्थान तक की सात श्रेणियों में नियति की प्रधानता प्रतीत होती है और आठवें से चौदहवें गुणस्थान तक की सात श्रेणियों में पुरुषार्थ का प्राधान्य प्रतीत होता है । जैन परम्परा यह स्वीकार करती है कि यथाप्रवृत्तिकरण की पूर्व अवस्था तक जो कि सम्यक् आचरण को दृष्टि से सातवें गुणस्थान में होती है, नैतिक या चारित्रगत विकास मात्र गिरि-नदी-पाषाण न्याय से होता है । इस आधार पर यह माना जा सकता है कि इस गुणस्थान तक आध्यात्मिक विकास में संयोग की ही प्रधानता रहती है । उसमें आत्मा का स्वतः का प्रयास सापेक्षतया अल्प ही होता है । आत्मा कर्मों की श्रृंखला तथा तज्जनित वासनाओं में इतनी बुरी तरह जकड़ी होती है कि उसे स्वशक्ति के उपयोग का अवसर ही प्राप्त नहीं होता हैं । यहाँ तक कर्म आत्मा को शासित करते हैं । लेकिन आठवें गुणस्थान से यह स्थित बदल जाती है । अपूर्वकरण की प्रक्रिया के द्वारा अब आत्मा कर्मों पर शासन करने लगती है । अन्तिम सात गुणस्थानों में कर्मों पर आत्मा का प्राधान्य होता है । दूसरे शब्दों में प्राणिविकास की चौदह श्रेणियों में प्रथम ३० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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