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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन को सूचित करता है जिसमें प्रबल शक्ति के साथ शत्रु सेना के राग द्वेष आदि सेना प्रमुखों के साथ ही साथ वासनारूपी शत्रु-सेना को भी बहुत कुछ जीत लिया जाता है । नवें गुणस्थान में अवशिष्ट वासनारूपी शत्रु-सेना पर भी विजय प्राप्त कर ली जाती है, फिर भी उनका राजा (सूक्ष्म लोभ) छद्मरूप से बच निकलता है। दसवें गुणस्थान में उस पर विजय पाने का प्रयास किया जाता है। लेकिन यह विजय यात्रा दो रूपों में चलती है। एक तो वह जिसमें शत्रु-सेना को नष्ट करते हुए आगे बढ़ा जाता है, दूसरी वह जिसमें शत्रु-सेना के अवरोध को दूर करते हुए प्रगति की जाती है। दूसरी अवस्था में शत्रु-सैनिकों को पूर्णतः विनष्ट नहीं किया जाता, मात्र उनके अवरोध को समाप्त कर दिया जाता है, वे तितर-बितर कर दिये जाते हैं, जिन्हें जैन पारिभाषिक शब्दावली में क्रमशः क्षायिक श्रेणी और उपशम श्रेणी कहा जाता है। क्षायिक श्रेणी में मोह कषाय एवं वासनाओं को निर्मूल करते हुए आगे बढ़ा जाता है, जबकि उपशम श्रेणी में उनको निर्मूल नहीं किया जाता, मात्र उन्हें दमित कर दिया जाता है । लेकिन यह दूसरे प्रकार की विजय-यात्रा अहितकर ही सिद्ध होती है। वे वासनारूपी शत्रु सैनिक समय पाकर एकत्र हो उस विजेता पर उस वक्त हमला बोल देते हैं जबकि विजेता विजय के बाद की विश्रान्ति की दशा में होता है और उसे पराजित कर उस पर अपना अधिकार जमा लेते हैं । यह ग्यारहवें गुण स्थानवर्ती उपशान्त मोह की अवस्था है, जहाँ से साधक पुनः पतित हो जाता है। लेकिन जो विजेता शत्रु-सेना को निर्मूल करता हुआ आगे बढ़ता है, उसकी विजय के बाद की विश्रान्ति उसके अग्रिम विकास का कारण बनती है। इस अवस्था को क्षीण-मोह नामक बारहवाँ गुणस्थान कहा जाता है। इस प्रकार सातवें गुणस्थान के बाद साधक की विजय यात्रा दो रूपों में चलती है । ८. अपूर्वकरण
यह आध्यात्मिक साधना की एक विशिष्ट अवस्था है। इस अवस्था में कर्मावरण के काफी हलका हो जाने के कारण आत्मा एक विशिष्ट प्रकार के आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति करती है। ऐसी अनुभूति पूर्व में कभी नहीं हुई होती है, अतः यह अपूर्व कही जाती है। इस अवस्था में साधक अधिकांश वासनाओं से मुक्त होता है । मात्र बीजरूप (संज्वलन) माया और लोभ ही शेष रहते हैं। शेष अनन्तानुबन्धी, अप्रत्याख्यानी और अप्रत्याख्यानी कषायों की तीनों चौकड़ियाँ तथा संज्वलन की चौकड़ी में से भी संज्वलन क्रोध एवं संज्वलन मान भी या तो क्षीण हो जाते हैं अथवा दमित (उपशमित) कर दिये जाते हैं और इस प्रकार साधक वासनाओं से काफी ऊपर उठ जाता है । अतः न केवल वह एक आध्यात्मिक आनन्द की अनुभूति करता है, वरन् उसमें एक प्रकार की आत्मशक्ति का प्रकटन भी हो जाता है. जिसके फलस्वरूप वह पूर्वबद्ध कर्मों की स्थिति और तीव्रता को कम कर सकता है और साथ ही उसके नवीन कर्मों का बंध भी
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