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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन ६. प्रमत्त सर्वविरति सम्यदृष्टि गुणस्थान
(प्रमत्त-संयत गुणस्थान)-यथार्थ बोध के पश्चात् जो साधक हिंसा, झूठ, मैथुन आदि अनैतिक आचरण से पूरी तरह निवृत्त होकर नैतिकता के मार्ग पर दृढ़ कदम रखकर बढ़ना चाहते हैं, वे इस वर्ग में आते हैं । यह गुणस्थान सर्वविरति गुणस्थान कहा जाता है, अर्थात् इस गुणस्थान में स्थित साधक अशुभाचरण अथवा नैतिक आचरण से पूर्णरूपेण विरत हो जाता है । ऐसे साधक में क्रोधादि कषायों की बाह्य अभिव्यक्ति का भी अभाव-सा होता है, यद्यपि आन्तरिक रूप में एवं बीज रूप में वे बनी रहती हैं। उदाहरण के रूप में क्रोध के अवसर पर ऐसा साधक बाह्य रूप से तो शान्त बना रहता है, तथा क्रोध को बाहर अभिव्यक्त भी नहीं होने देता और इस रूप में वह उस पर नियंत्रण भी करता है, फिर भी क्रोधादि कषाय वृत्तियां उनके अन्तर-मानस को झकोरती रहती है, ऐसी दशा में भी साधक अशुभाचरण और अशुभ मनोवृत्तियों पर पूर्णतः विजय प्राप्त करने के लिए दृढ़तापूर्वक आगे बढ़ने का प्रयास करता रहता है । जब-जब वह कषायादि प्रमादों पर अधिकार कर लेता है तब-तब वह आगे की श्रेणी (अप्रमत्त संयत गुणस्थान) में चला जाता है और जब-जब कषाय आदि प्रमाद उस पर हावी होते हैं तब-तब वह उस आगे की श्रेणी से पुनः लौटकर इस श्रेणी में आ जाता है । वस्तुतः यह उन साधकों का विश्रान्तिस्थल है जो साधना पथ पर प्रगति तो करना चाहते हैं, लेकिन यथेष्ट शक्ति के अभाव में आगे बढ़ नहीं पाते, अतः इस वर्ग में रहकर विश्राम करते हुए शक्ति संचय करते हैं। इस प्रकार यह गुणस्थान अशुभाचरण से अधिकांश रूप में विरति है । इसमें अशुभ मनोवृत्तियों को क्षीण करने का भरसक प्रयास किया जाता है । इस अवस्था में प्रायः आचरण शुद्धि तो हो जाती है, लेकिन विचार (भाव) शुद्धि का प्रयास चलता रहता है ।
इस गुणस्थानवर्ती साधक साधनापथ में परिचारण करते हुए आगे बढ़ना तो चाहता है, लेकिन प्रमाद उसमें अवरोधक बना रहता है। ऐसे साधकों को साधना के लक्ष्य का भान तो रहता है, लेकिन लक्ष्य के प्रति जिस सतत जागरूकता की अपेक्षा है उसका उनमें अभाव होता है । ___ श्रमण छठे और सातवें गुणस्थान के मध्य परिचारण करते रहते हैं। गमनागमन, भाषण, आहार, निद्रा आदि जैविक आवश्यकताओं एवं इन्द्रियों की अपने विषय की ओर चंचलता के कारण जब-जब वे लक्ष्य के प्रति सतत जागरूकता नहीं रख पाते तबतब वे इस गुणस्थान में आ जाते हैं और पुनः लक्ष्य के प्रति जागरूक बनकर सातवें गुणस्थान में चले जाते हैं । वस्तुतः इस गुणस्थान में रहने का कारण देहभाव होता है । जब भी साधक में देहभाव आता है, वह सातवें से इस छठे गुणस्थान में आ जाता है। फिर भी इस गुणस्थानवर्ती आत्मा में मूर्छा या आसक्ति नहीं होती। ___ गुणस्थान में आने के लिए साधक को मोह-कर्म की १५ प्रकृतियों का क्षय, उपशम, क्षयोपशम करना होता है।
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