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________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास ४६१ ५. देशविरति सम्यकदृष्टि गुणस्थान वैसे यह आध्यात्मिक विकास की पांचवीं श्रेणी है, लेकिन नैतिक आचरण की दृष्टि से यह प्रथम स्तर ही है, जहाँ से साधक नैतिकता के पथ पर चलना प्रारम्भ करता है । चतुर्थ अविरत सम्यक्दृष्टि गुणस्थान में साधक कर्तव्याकर्तव्य का विवेक रखते हुए भी कर्तव्य पथ पर आरूढ़ नहीं हो पाता जबकि इस पाँचवें देशविरति सम्यक्दृष्टि गुणस्थान में साधक कर्तव्यपथ पर यथाशक्ति चलने का प्रारम्भिक प्रयास प्रारम्भ कर देता है । इसे देशविरति सम्यकदृष्टि गुणस्थान कहा जा सकता है । देशविरति का अर्थ है- वासनामय जीवन से आंशिक रूप में निवृत्ति । हिंसा, झूठ, परस्त्रीगमन आदि अशुभाचार तथा क्रोध लोभ आदि कषायों से आंशिक रूप में विरत होना ही देशविरति है। इस गुणस्थान में साधक यद्यपि गृहस्थाश्रमी रहता है, फिर भी वासनाओं पर थोड़ा-बहुत यथाशक्ति नियंत्रण करने का प्रयास करता है । जिसे वह उचित समझता है उस पर आचरण करने की का शिश भी करता है । इस गुणस्थान में स्थित साधक श्रावक के १२ व्रतों का आचरण करता है । चतुर्थ गुणस्थानवर्ती में व्यक्तियों में वासनाओं एवं कषायों के आवेगों का प्रकटन तो होता है और वे उन पर नियंत्रण करने की क्षमता नहीं रखते हैं, मात्र उनकी वासनाओं एवं कषायों में स्थायित्व नहीं होता। वे एक अवधि के पश्चात् उपशान्त हो जाती है । जैसे तृणपुंज में अग्नि तीव्रता से प्रज्ज्वलित होती है और उस पर काबू पाना भी कठिन होता है, फिर भी एक समय के पश्चात् वह स्वयं ही उपशान्त हो जाती है। किन्तु जब तक व्यक्ति में कषायों पर नियंत्रण की क्षमता नहीं आ जाती, तब तक वह पाँचवें गुणस्थान को प्राप्त नहीं कर सकता है। इस गुण स्थान की प्राप्ति के लिए अप्रत्याख्यानी (अनियंत्रणीय) कषायों का उपशान्त होना आवश्यक है । जिस व्यक्ति में वासनाओं एवं कषायों, पर नियंत्रण करने की क्षमता नहीं होती वह नैतिक आचरण नहीं कर सकता। इसी कारण नैतिक आचरण की इस भूमिका में वासनाओं एवं कषायों पर आंशिक नियंत्रण की क्षमता का विकास होना आवश्यक समझा गया । पंचम गुणस्थानवर्ती साधक साधना-पथ पर फिसलता तो है, लेकिन उसमें संभलने की क्षमता भी होती है । यदि साधक प्रमाद के वशीभूत न हो और फिसलने के अवसरों पर इस क्षमता का समुचित उपयोग करता रहे तो वह विकास-क्रम में आगे बढ़ता जाता है, अन्यथा प्रमाद के वशीभूत होने पर इस क्षमता का समुचित उपयोग न कर पाने के कारण अपने स्थान से गिर भी सकता है। ऐसे साधक के लिए यह आवश्यक है कि क्रोधादि कषायों का आन्तरिक एवं बाह्य अभिव्यक्ति होने पर उनका नियंत्रण करे एवं अपनी मानसिक विकृति का परिशोधन एवं विशुद्धिकरण करे । जो व्यक्ति चार मास के अन्दर उनका परिशोधन तथा परिमार्जन नहीं कर लेता, वह इस श्रेणी से गिर जाता है । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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