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________________ ४६० जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन तीव्रतम मान ) ३. अनन्तानुबन्धी माया ( स्थायी तीव्रतम कपट ) ४. अनन्तानुबन्धी लोभ ( स्थायी तीव्रतम लोभ ) ५. मिथ्यात्व मोह, ६. मिश्र मोह और ७. सम्यक्त्व मोह | आत्मा जब इन सात कर्म- प्रकृतियों को पूर्णतः नष्ट (क्षय) करके इस अवस्था को प्राप्त करता है तो उसका सम्यक्त्व क्षायिक कहलाता है और ऐसा आत्मा इस गुणस्थान से वापस गिरता नहीं है, वरन् अग्रिम विकास-श्रेणियों में होकर अन्त में परमात्म स्वरूप को प्राप्त कर लेता है । उसका सम्यक्त्व स्थायी होता है, लेकिन जब आत्मा उपर्युक्त कर्म - प्रकृतियों का दमन कर आगे बढ़ता है और इस अवस्था को प्राप्त करता है तब उसका सम्यक्त्व औपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है । इसमें वासनाओं को नष्ट नहीं किया जाता, वरन् उन्हें दबाया जाता है, अतः ऐसे यथार्थ दृष्टिकोण में अस्थायित्व होता है और आत्मा अन्तर्मुहूर्त ( ४८ मिनिट) के अन्दर ही दमित वासनाओं के पुनः प्रकटीकरण पर उनके प्रबल आवेगों के वशीभूत हो यथार्थता से विमुख हो जाता है । इसी प्रकार जब वासनाओं को आंशिक रूप में क्षय करने पर और आंशिक रूप में दबाने पर यथार्थता का जो बोध या सत्य-दर्शन होता है उसमें भी अस्थायित्व होता है क्योंकि दमित वासनाएँ पुनः प्रकट होकर व्यक्ति को यथार्थ दृष्टि के स्तर में गिरा देती हैं । वासनाओं के आंशिक क्षय और आंशिक दमन ( उपशम) पर आधृत यथार्थ दृष्टिकोण क्षायोपशमिक सम्यक्त्व कहलाता है तुलनात्मक दृष्टि से विचार करने पर स्थविरवादी बौद्ध परम्परा में इस अवस्था की तुलना स्रोतापन्न अवस्था से की जा सकती है । जिस प्रकार औपशमिक एवं क्षायोपशमिक की अवस्था से सम्यकमार्ग से पराङ्मुख होने की सम्भावना रहती है, उसी प्रकार स्रोतापन्न साधक भी मार्गच्युत हो सकता है । महायानी बौद्ध साहित्य में इस अवस्था की तुलना 'बोधि प्रणिधिचित्त' से की जा सकती है । जिस प्रकार चतुर्थ गुणस्थानवर्ती आत्मा यथार्थ मार्ग को जानती है, उस पर चलने की भावना भी रखती है, लेकिन वास्तविक रूप में उस मार्ग पर चलना प्रारम्भ नहीं कर पाती, उसी प्रकार 'बोधि प्रणिधिचित्त' में भी यथार्थ मार्ग गमन की या लोकपरित्राण की भावना का उदय हो जाता है, लेकिन वह उस कार्य में प्रवृत्त नहीं होता । आचार्य हरिभद्र ने सम्यकदृष्टि अवस्था की तुलना महायान के बोधिसत्व के पद से की है ।" बोधिसत्व का साधारण अर्थ हैज्ञान प्राप्ति का इच्छुक २ इस अर्थ में बोधिसत्व सम्यकदृष्टि से तुलनीय है, लेकिन यदि बोधिसत्व के लोक-कल्याण के आदर्श को सामने रखकर तुलना की जाय तो बोधिसत्व पद उस सम्यकदृष्टि आत्मा से तुलनीय है जो तीर्थंकर होनेवाला है । 3 १. योगबिन्दु, २७० । २. बोधिपंजिका, पृ० ४२१, उद्धृत बौद्धदर्शन, पृ० ११९ । ३. योगबिन्दु, २७३-२७४ ॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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