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आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास
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करते हुए यह अनिश्चय की स्थिति दीर्घकालिक भी हो सकती है। गीता अर्जुन चरित्र के द्वारा इस अनिश्चय की अवस्था का सुन्दर चित्र प्रस्तुत करती है । आंग्ल साहित्य में शेक्सपीयर ने अपने हेमलेट नामक नाटक में राजपुत्र हेमलेट के चरित्र का जो शब्दांकन किया है वह भी सत् और असत् के मध्य अनिश्चयावस्था का अच्छा उदाहरण है ।
४. अविरत सम्यक् दृष्टि गुणस्थान
अविरत सम्यक दृष्टि गुणस्थान आध्यात्मिक विकास की वह अवस्था है जिसमें साधक को यथार्थता का बोध या सत्य का दर्शन हो जाता है । वह सत्य को सत्य के रूप में और असत्य को असत्य के रूप में जानता है । उसका दृष्टिकोण सम्यक् होता है । फिर भी उसका आचरण नैतिक नहीं होता है । वह अशुभ को अशुभ तो मानता है, लेकिन अशुभ के आचरण से बच नहीं पाता । दूसरे शब्दों में वह बुराई को बुराई के रूप में जानता तो है, फिर भी पूर्व संस्कारों के कारण उन्हें छोड़ नहीं पाता है । उसका ज्ञानात्मक पक्ष सम्यक् ( यथार्थ ) होने पर भी आचरणात्मक पक्ष असम्यक् होता है । ऐसे साधक में वासनाओं पर अंकुश लगाने की या संयम की क्षमता क्षीण होती है । वह सत्य, शुभ या न्याय के पक्ष को समझते हुए भी असत्य, अन्याय या अशुभ का साथ छोड़ने नहीं पाता । महाभारत में ऐसा चरित्र हमें भीष्म पितामह का मिलता है जो कौरवों के पक्ष को अन्याययुक्त, अनुचित और पाण्डवों के पक्ष को न्यायपूर्ण और उचित मानते हुए भी कौरवों के पक्ष में ही रहने को विवश हैं । जैन विचार इसी को अविरत सम्यक् दृष्टित्व कहता है । इस स्थिति को जैन व्याख्या यह है कि दर्शनमोह कर्म को शक्ति के दब जाने या उसके आवरण के विरल या क्षीण हो जाने के बोध तो हो जाता है लेकिन चारित्रमोह कर्म की सत्ता के बने
कारण व्यक्ति को यथार्थ
रहने के कारण व्यक्ति
श्रेय के मार्ग को,
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अब्रह्मचर्य आदि को अविरत सम्यकदृष्टि पर संयम होता है,
नैतिक आचरण नहीं कर पाता । वह एक अपंग व्यक्ति की भांति है, जो देखते हुए भी चल नहीं पाता । अविरत सम्यक्दृष्टि आत्मा नैतिक मार्ग को जानते हुए भी उस पर आचरण नहीं कर पाता । वह हिंसा, झूठ, अनैतिक मानते हुए भी उनसे विरत नहीं होता । फिर भी आत्मा में भी किसी अंश तक आत्म-संयम या वासनात्मक वृत्तियों क्योंकि अविरत सम्यकदृष्टि में भी क्रोध, मान, माया और लोभ इन चार कषायों के स्थायी तथा तीव्रतम आवेगों का अभाव होता है । क्योंकि जब तक कषायों के इस तीव्रतम आवेगों अर्थात् अनन्तानुबन्धी चौकड़ी का क्षय या उपशम नहीं होता तब तक वह सम्यक्दर्शन भी प्राप्त नहीं होता । जैन- विचार के अनुसार सम्यक् - अविरत सम्यक् - दृष्टि गुणस्थानवर्ती आत्मा को निम्न सात कर्म प्रकृतियों का क्षय, उपशम या क्षयोपराम करना होता है
१. अनन्तानुबन्धी क्रोध ( स्थायी तीव्रतम क्रोध ) २. अनन्तानुबन्धी मान ( स्थायी
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