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जैन, बौद्ध तथा गोता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
धात्मा ) और आदर्श एवं मूल्यात्मक जीवन के प्रतिनिधि नैतिक मन ( आदर्शात्मा ) के मध्य संघर्ष की वह अवस्था है जिसमें चेतन मन ( बोधात्मा ) अपना निर्णय देने में असमर्थता का अनुभव करता है और निर्णय को स्वल्प समय के लिए स्थगित रखता है । यदि चेतन मन वासनात्मकता का पक्ष लेता है तो व्यक्ति भोगमय जीवन की ओर मुड़ता है अर्थात् मिथ्यादृष्टि हो जाता है और यदि चेतन मन आदर्शों या नैतिक मूल्यों के पक्ष में अपना निर्णय देता है, तो व्यक्ति आदर्शों की ओर मुड़ता है अर्थात् सम्यक दृष्टि हो जाता है । मिश्र गुणस्थान जीवन के संघर्ष की अवस्था का द्योतक है, जिसमें सत्य और असत्य, शुभ और अशुभ, अथवा मानव में निहित पाशविक वृत्तियाँ और आध्यात्मिक वृत्तियों के मध्य संघर्ष चलता है । लेकिन जैन- विचारधारा के अनुसार यह वैचारिक या मानसिक संघर्ष की अवस्था अन्तर्मुहूर्त ( ४८ मिनट ) से अधिक नहीं रहती । यदि आध्यात्मिक एवं नैतिक पक्ष विजयी होता है तो व्यक्ति आध्यात्मिक विकास की दिशा में आगे बढ़कर यथार्थ दृष्टिकोण को प्राप्त कर लेता है, अर्थात् वह चतुर्थ अविरत सम्यक दृष्टि गुणस्थान में चला जाता है, किन्तु जब पाशविक वृत्तियाँ विजयी होती हैं तो व्यक्ति वासनाओं के प्रबलतम आवेगों के फलस्वरूप यथार्थ दृष्टिकोण से वंचित हो पुनः पतित होकर प्रथम मिथ्यात्व गुणस्थान में चला जाता है । इस प्रकार नैतिक प्रगति की दृष्टि से यह तीसरा गुणस्थान भी अविकास की अवस्था ही है; क्योंकि जब तक व्यक्ति में यथार्थ बोध या शुभाशुभ के सम्बन्ध में सम्यक् विवेक जागृत नहीं हो जाता है, तब तक वह नैतिक आचरण नहीं कर पाता है । इस तीसरे गुणस्थान में शुभ और अशुभ के सन्दर्भ में अनिश्चय की अवस्था अथवा सन्देहशीलता की स्थिति रहती है, अतः इस अवस्था में नैतिक आचरण की सम्भावना नहीं मानी जा सकती । महत्त्वपूर्ण बात यह है कि इस तृतीय मिश्र गुणस्थान में अथवा अनिश्चय की अवस्था में मृत्यु नहीं होती क्योंकि आचार्य नेमिचन्द्र' का कथन है कि मृत्यु उसी स्थिति में सम्भव है जिसमें भावी आयुकर्म का बन्ध हो सके । इस तृतीय गुणस्थान में भावी आयुकर्म का बंध नहीं होता अतः मृत्यु भी नहीं हो सकती । इस सन्दर्भ में डाक्टर कलघाटकी कहते हैं कि इस अवस्था मृत्यु सम्भव नहीं हो सकती, क्योंकि मृत्यु के समय में इस संघर्ष की शक्ति चेतना में नहीं होती है, अतः मृत्यु के समय यह संघर्ष समाप्त होकर या तो व्यक्ति मिथ्या दृष्टिकोण को अपना लेता है या सम्यक् दृष्टिकोण को अपना लेता है । यह अवस्था अल्पकालिक होती है, लेकिन अल्पकालिकता केवल इसी आधार पर है कि मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की सीमा रेखाओं का स्पर्श नहीं करते हुए संशय की स्थिति में अधिक नहीं रहा जा सकता । लेकिन मिथ्यात्व और सम्यक्त्व की सीमाओं का स्पर्श
१. गोम्मटसार, जीवकाण्ड - २५ |
२. सम प्राबलेम्स आफ जैन साइकोलाजी - पृ० १५६, गोम्मटसार, जीवकाण्ड - २४ |
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