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________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास ४५७ प्रकार मिष्ठान्न खाने के अनन्तर वमन होने पर वमित वस्तु का एक विशेष प्रकार का आस्वादन होता है, उसी प्रकार यथार्थ बोध हो जाने पर मोहासक्ति के कारण जब पुनः अयथार्थता ( मिथ्यात्व ) का ग्रहण किया जाता है तो उसे ग्रहण करने के पूर्व थोड़े समय के लिए उस यथार्थता का एक विशिष्ट प्रकार का अनुभव बना रहता है । यही पतनोन्मुख अवस्था में होने वाला यथार्थता का क्षणिक आभास या आस्वादन 'सास्वादन गुणस्थान' है । ३. सम्यक् - मिथ्यादृष्टि गुणस्थान या मिश्र गुणस्थान ( ढुलमुल यकीन ) यह गुणस्थान भी विकास श्रेणी का सूचक न होकर पतनोन्मुख अवस्था का ही सूचक है, जिसमें अवक्रान्ति करनेवाली पतनोन्मुख आत्मा चतुर्थ गुणस्थान से पतित होकर आती है । यद्यपि उत्क्रान्ति करनेवाली आत्माएँ भी प्रथम गुणस्थान से निकलकर तृतीय गुणस्थान को प्राप्त कर सकते हैं यदि उन्होंने कभी भी चतुर्थ गुणस्थान का स्पर्श किया हो । जो चतुर्थ गुणस्थान में यथार्थ का बोध कर पुनः पतित होकर प्रथम गुणस्थान को प्राप्त करती हैं, वे ही आत्माएँ अपने उत्क्रान्तिकाल में प्रथम गुणस्थान से सीधे तृतीय गुणस्थान में आती हैं, लेकिन जिन आत्माओं ने कभी सम्यक्त्व ( यथार्थ बोध ) का स्पर्श नहीं किया है वे अपने विकास में प्रथम गुणस्थान से सीधे चतुर्थ गुणस्थान में जाती हैं। क्योंकि संशय उसे हो सकता है जिसे यथार्थता का कुछ अनुभव हुआ है । यह एक अनिश्चय की अवस्था है, जिससे साधक यथार्थ बोध के पश्चात् संशया वस्था को प्राप्त हो जाने के कारण सत्य और असत्य के मध्य झूलता रहता है । नैतिक दृष्टि से कहें तो यह एक ऐसी स्थिति है जबकि व्यक्ति वासनात्मक जीवन और कर्तव्यशीलता के मध्य अथवा दो परस्पर विरोधी कर्तव्यों के मध्य उसे क्या करना श्रेय है इसका निर्णय नहीं कर पाता । वस्तुतः जब व्यक्ति सत्य और असत्य के मध्य किसी एक का चुनाव न कर अनिर्णय की अवस्था में होता है, तब ही यह अनिश्चय की स्थिति उत्पन्न होती है । इस अनिर्णय की स्थिति में व्यक्ति को न सम्यक दृष्टि कहा जा सकता है, न मिथ्यादृष्टि | यह भ्रान्ति को एक ऐसी अवस्था है जिसमें सत्य और असत्य ऐसे रूप में प्रस्तुत होते हैं कि व्यक्ति यह पहचान नहीं पाता कि इनमें से सत्य कौन है ? फिर भी इस वर्ग में रहा हुआ व्यक्ति असत्य को सत्य रूप में स्वीकार नहीं करता है । यह अस्वीकृत भ्रान्ति है, जिसमें व्यक्ति को अपने भ्रान्त होने का ज्ञान रहता है, अतः वह पूर्णतः न तो भ्रान्त कहा जा सकता है न अभ्रान्त । जो साधक सन्मार्ग या मुक्ति पथ में आगे बढ़ते हैं, लेकिन जब उन्हें अपने लक्ष्य के प्रति संशय उत्पन्न हो जाता है, वे चौथी श्रेणी से गिरकर इस अवस्था में आ जाते हैं । अपने अनिश्चय की अल्प कालावधि में इस वर्ग में रहकर, सन्देश के नष्ट होने पर या तो पुनः चौथे सम्यकदृष्टि गुणस्थान में चले जाते हैं या पथ भ्रष्ट होने से पहले मिथ्यादृष्टि गुणस्थान में चले जाते हैं । वैज्ञानिक दृष्टि से यह पाशविक एवं वासनात्मक जीवन के प्रतिनिधि इदम् ( अबो Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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