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________________ ४५६ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन से पीड़ित व्यक्ति को मधुर भोजन रुचिकर नहीं लगता।' व्यक्ति को यथार्थ दृष्टिकोण या सम्यक्त्व की प्राप्ति के लिए जो करना है वह यही है कि वह ऐकान्तिक एवं विपरीत धारणाओं का परित्याग कर दे, स्वयं को पक्षाग्रह के व्यामोह से मुक्त रखे । जब व्यक्ति इतना कर लेता है, तो यथार्थ दृष्टिकोण वाला बन जाता है । वस्तुतः यथार्थ या सत्य प्राप्त करने की वस्तु नहीं है। वह सदैव उसी रूप में उपस्थित है, केवल हम अपने पक्षाग्रह और एकान्तिक व्यामोह के कारण उसे देख पाते हैं । जो आत्माएँ दुराग्रहों से मुक्त नहीं हो पाती हैं, वे अनन्तकाल इसी वर्ग में बनी रहती हैं और अपना आध्यात्मिक विकास नहीं कर पाती हैं। फिर भी इस प्रथम वर्ग की सभी आत्माएँ आध्यात्मिक विकास की दृष्टि से समान नहीं हैं। उनमें भी तारतम्य है । पण्डित सुखलालजी के शब्दों में-प्रथम गुणस्थान में रहने वाली ऐसी अनेक आत्माएँ होती हैं जो राग-द्वष के तीव्रतम वेग को थोड़ा-सा दबाये हुए होती हैं। वे यद्यपि आध्यात्मिक लक्ष्य के सर्वदा अनुकूलगामी नहीं होतीं, तो भी उनका बोध व चारित्र अन्य अविकसित आत्माओं की अपेक्षा अच्छा ही होता है । यद्यपि ऐसी आत्माओं की अवस्था आध्यात्मिक दृष्टि से सर्वथा आत्मोन्मुख न होने के कारण मिथ्यादृष्टि, विपरीतदृष्टि या असत्दृष्टि कहलाती है, तथापि वह सदृष्टि के समीप ले जाने वाली होने के कारण उपादेय मानी गयी है । आचार्य हरिभद्र ने मार्गाभिमुख अवस्था के चार विभाग किये है, जिन्हें क्रमशः मित्रा, तारा, बला और दीपा कहा गया है । यद्यपि इन वर्गों में रहने वाली आत्माओं की दृष्टि असत् होती है, तथापि उनमें मिथ्यात्व की वह प्रगाढ़ता नहीं होती जो अन्य आत्माओं में होती है। मिथ्यात्व की अल्पता होने पर इसी गुणस्थान के अन्तिम चरण में आत्मा पूर्ववणित यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनावृत्तिकरण नामक ग्रन्थि-भेद की प्रक्रिया करता है और उसमें सफल होने पर विकास के अगले चरण सम्यग्दृष्टि नामक चतुर्थ गुणस्थान को प्राप्त करता है । २. सास्वादन गुणस्थान यद्यपि सास्वादन गुणस्थान क्रम की अपेक्षा से विकासशील कहा जा सकता है, लेकिन वस्तुतः यह गुणस्थान आत्मा की पतनोन्मुख अवस्था का द्योतक है। कोई भी आत्मा इसमें प्रथम गुणस्थान से विकास करके नहीं आती, वरन् जब आत्मा ऊपर की श्रेणियों से पतित होकर प्रथम गुणस्थान की ओर जाती है तो इस अवस्था से गुजरती है । पतनोन्मुख आत्मा को गुणस्थान तक पहुँचने की मध्यावधि में जो क्षणिक (६ अवली) समय लगता है वही इस गुणस्थान का स्थिति-काल है। जिस प्रकार फल को वृक्ष से टूटकर पृथ्वी पर पहुँचने में समय लगता है, उसी प्रकार आत्मा की गिरावट में जो समय लगता है वही समयावधि सास्वादन गुणस्थान के नाम से जानी जाती है । जिस १. गोम्मटसार, जीवकाण्ड-१७ । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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