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________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास ४५५ " गयी हैं - १. मिध्यात्व, २. सास्वादन, ३. मिश्र, ४. अविरत सम्यग्दृष्टि, ५. देशविरत सम्यग्दृष्टि, ६ प्रमत्तसंयत, ७ अप्रमत्तसंयत (अप्रमत्तविरत ), ८ अपूर्वकरण, ९. अनिवृत्तिकरण, १०. सूक्ष्मसम्पराय ११. उपशान्तमोह, १२. क्षीणमोह, १३. सयोगीकेवली और १४. अयोगी केवली । प्रथम से चतुर्थ गुणस्थान तक का क्रम दर्शन की अवस्थाओं को प्रकट करता है, जबकि पाँचवें से बारहवें गुणस्थान तक का विकासक्रम सम्यग्वारित्र से सम्बन्धित है । १३वीं एवं १४वाँ गुणस्थान आध्यात्मिक पूर्णता का द्योतक है। इनसे भी दूसरे और तीसरे गुणस्थानों का सम्बन्ध विकास क्रम से न होकर वे मात्र चतुर्थ गुणस्थान से प्रथम गुणस्थान की ओर होने वाले पतन को सूचित करते हैं । इन गुणस्थानों का संक्षिप्त परिचय यहाँ आवश्यक प्रतीत होता है । १. मिथ्यात्व गुणस्थान इस अवस्था में आत्मा यथार्थ ज्ञान और सत्यानुभूति से वंचित रहती है । आध्यात्मिक दृष्टि से यह आत्मा की बहिर्मुखी अवस्था है । इसमें प्राणी यथार्थबोध के अभाव के कारण बाह्य पदार्थों से सुखों की प्राप्ति की कामना करता है और उसे आध्यात्मिक या आत्मा के आन्तरिक सुख का रसास्वादन नहीं हो पाता । अयथार्थं दृष्टिकोण के कारण वह असत्य को सत्य और अधर्म को धर्म मानकर चलता है । वह दिग्भ्रमित व्यक्ति की तरह लक्ष्य-विमुख हो भटकता रहता है और अपने गन्तव्य को प्राप्त नहीं कर पाता । यह आत्मा की अज्ञानमय अवस्था है । नैतिक दृष्टि से इस अवस्था में प्राणी को शुभाशुभ या कर्तव्याकर्तव्य का विवेक नहीं होता है । वह नैतिक विवेक से तो शून्य होता ही है, नैतिक आचरण से भी शून्य होता है । इसी बात को पारिभाषिक शब्दों में इस प्रकार कहा जा सकता है कि मिथ्यात्व गुणस्थान में आत्मा दर्शनमोह और चारित्रमोहको कर्म प्रवृत्तियों से प्रगाढ़ रूप से जकड़ी होती है । मानसिक दृष्टि से मिथ्यात्व गुणस्थान में प्राणी तीव्रतम क्रोध, मान, माया और लोभ ( अनन्तानुबन्धी कषाय) के वशीभूत रहता है । वासनात्मक प्रवृत्तियाँ उस पर पूर्ण रूप से हावी होती हैं जिनके कारण वह सत्य दर्शन एवं नैतिक आचरण से वंचित रहता है । जैन विचारधारा के अनुसार संसार की अधिकांश आत्माएँ मिथ्यात्व गुणस्थान में ही रहती हैं, यद्यपि ये भी दो प्रकार की आत्माएँ हैं - १. भव्य आत्मा - जो भविष्य में कभी न कभी यथार्थ दृष्टिकोण से युक्त हो नैतिक आचरण के द्वारा अपना आध्यात्मिक विकास कर पूर्णत्व को प्राप्त कर सकेंगी और २. अभव्य आत्मा वे आत्माएँ जो कभी भी आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास नहीं कर सकेंगी, न यथार्थ बोध ही प्राप्त करेंगी । मिथ्यात्व गुणस्थान में आत्मा १. एकान्तिक धारणाओं, २. विपरीत धारणाओं, ३. वैनयिकता ( रूढ़ परम्पराओं ), ४. संशय और ५ अज्ञान से युक्त रहती है ।" इसलिए उसमें यथार्थ दृष्टिकोण के प्रति उसी प्रकार रुचि का अभाव होता है, जैसे ज्वर १. विशेष विवेचन के लिए देखिए - मिथ्यात्व प्रकरण | Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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