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________________ ४५४ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन दर्शनमोह के पूर्व में विभाजित तीन वर्गों में से किसी भी वर्ग की कर्मप्रकृति का गुणश्रेणी के अनुसार उदय हो सकता है। यदि प्रथम ( उदय ) फलभोग सम्यत्व मोह का होता है तो आत्मा विशुद्धाचरण करता हुआ विकासोन्मुख हो जाता है, लेकिन यदि मिश्रमोह अथवा मिथ्यात्वमोह का विपाक होता है तो आत्मा पुनः पतनोन्मुख हो जाता है और अपने अग्रिम विकास के लिए उसे पुनः ग्रन्थि-भेद की प्रक्रिया करनी होती है । फिर भी इतना तो निश्चित है कि वह एक सीमित समयावधि में अपने आदर्श को उपलब्ध कर ही लेती है। प्रन्थि-भेद की प्रक्रिया का द्विविध रूप यहाँ यह शंका हो सकती है कि ग्रन्थि-भेद की यह प्रक्रिया तो सम्यग्दर्शन नामक चतुर्थ गुणस्थान की उपलब्धि के पूर्व प्रथम गुणस्थान में ही हो जाती है, फिर सप्तम, अष्टम और नवम गुणस्थानों में होनेवाले यथाप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनावृत्तिकरण कौन से हैं ? वस्तुतः ‘ग्रन्थि-भेद की यह प्रक्रिया साधना के क्षेत्र में दो बार होती है। पहली प्रथम गुणस्थान के अन्तिम चरण में और दूसरी सातवें, आठवें और नवें गुणस्थान में । लेकिन प्रश्न यह उठता है कि यह दो बार क्यों होती है ? और पहली और दूसरी बार की प्रक्रिया में क्या अन्तर है ? वास्तविकता यह है कि जैन-दर्शन में बन्धन के प्रमुख कारण मोह की दो शक्तियाँ मानी गयी हैं-१. दर्शनमोह और २. चारित्रमोह। दर्शनमोह यथार्थ दृष्टिकोण (सम्यक्दर्शन) का आवरण करता है और चारित्रमोह नैतिक आचरण (सम्यक्चारित्र) में बाधा डालता है । मोह के इन दो भेदों के आधार पर ही ग्रन्थिभेद की यह प्रक्रिया भी दो बार होती है । प्रथम गुणस्थान के अन्त में होने वाली ग्रन्थि-भेद की प्रक्रिया का सम्बन्ध दर्शनमोह के आवरण को समाप्त करने से है, जबकि सातवें, आठवें और नवें गुणस्थानों में होने वाली ग्रन्थि-भेद की प्रक्रिया का सम्बन्ध चारित्रमोह अर्थात् अनैतिकता को समाप्त करने से है। पहली बार प्रक्रिया के अन्त में सम्यकदर्शन का लाभ होता है, जबकि दूसरी बार प्रक्रिया के अन्त में सम्यक्चारित्र का उदय होता है । एक में वासनात्मक वृत्तियों का निरोध होता है, दूसरी में दुराचरण का निरोध । एक में दर्शन (दृष्टिकोण) शुद्ध होता है, दूसरी से चारित्र शुद्ध होता है। जैन साधना की पूर्णता दर्शनविशुद्धि में न होकर चारित्रविशुद्धि में है, यद्यपि यह एक स्वीकृत तथ्य है कि दर्शनविशुद्धि के पश्चात् यदि उसमें टिकाव रहा तो चारित्रविशुद्धि अनिवार्यतया होती है । सत्य के दर्शन के पश्चात् उसकी उपलब्धि एक अवश्यता है । यह बात इस प्रकार भी कही जा सकती है कि सम्यग्दर्शन का स्पर्श कर लेने पर आत्मा की मुक्ति अवश्य ही होती है। गुणस्थान का सिद्धान्त जैन-विचारधारा में नैतिक एवं आध्यात्मिक विकास क्रम की १४ अवस्थाएँ मानी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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