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________________ आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास ४५३ प्रक्रिया अपूर्वकरण कही जाती है । इस अपूर्वकरण की प्रक्रिया का प्रमुख कार्य राग और द्वष की ग्रन्थियों का छेदन करना है क्योंकि यही तनाव या दुःख के मूल कारण हैं। साधना के क्षेत्र में यही कार्य अत्यन्त दुष्कर है । क्योंकि यही वास्तविक संघर्ष की अवस्था है । मोह राजा के राजप्रासाद का यही वह द्वितीय द्वार है जहाँ सबसे अधिक बलवान् एवं सशस्त्र अंगरक्षक दल तैनात है । यदि इन पर विजय प्राप्त कर ली जाती है तो फिर मोहरूपी राजा पर विजय पाना सहज होता है। अपूर्वकरण की अवस्था में आत्मा कर्म-शत्रुओं पर विजय पाते हुए निम्न पांच प्रक्रियाएं करती है-(१) स्थितिघात, २. रसघात, ३. गुणश्रेणी, ४. गुण-संक्रमण और ५. अपूर्वबंध ।। १. स्थितिघात-कर्मविपाक की अवधि में परिवर्तन करना । २. रसघात-कम-विपाक एवं बन्धन की प्रगाढ़ता ( तीव्रता ) में कमी । ३. गुणश्रेणी-कर्मों को ऐसे क्रम में रख देना ताकि विपाककाल के पूर्व ही उनका फलभोग किया जा सके। ४. गुण-संक्रमण-कर्मों का अवान्तर प्रकृतियों में रूपान्तर अर्थात् जैसे दुःखद वेदना को सुखद वेदना में रूपान्तरित कर देना । ५. अपूर्वबंध-क्रियमाण क्रियाओं के परिणामस्वरूप होने वाले बन्ध का अत्यन्त अल्पकालिक एवं अल्पतर मात्रा में होना । (इ) अनावृत्तिकरण-आत्मा अपूर्वकरण की प्रक्रिया के द्वारा राग और द्वेष की ग्रन्थियों का भेदन कर विकास की दिशा में अपना अगला चरण रखती है, यह प्रक्रिया अनावृत्तिकरण कहलाती है । इस भूमिका में आकर आत्मा शुद्ध आत्मस्वरूप पर रहे हुए मोह के आवरण को अनावरित कर अपने ही यथार्थ स्वरूप का दर्शन करती है । यही सम्यग्दर्शन के बोध की भूमिका है, जिसमें सत्य अपने यथार्थ स्वरूप में साधक के सामने अभिव्यक्त हो जाता है । अनावृत्तिकरण में पुनः १. स्थितिघात, २. रसधात, ३. गुणश्रेणी, ४. गुणसंक्रमण और ५. अपूर्वबन्ध नामक प्रक्रिया सम्पन्न होती है, जिसे अन्तरकरण कहा जाता है । अन्तरकरण की इस प्रक्रिया में आत्मा दर्शनमोहनीय कर्म को प्रथमत. दो भागों में विभाजित करती है । साथ ही अनावृत्तिकरण के अन्तिम चरण में दूसरे भागों को भी तीन उपविभागों में विभाजित करती है, जिन्हें क्रमशः १. सम्यक्त्व मोह, २ मिथ्यात्व मोह और ३. मिश्र मोह कहते हैं । सम्यक्त्व मोह सत्य के ऊपर श्वेत कांच का आवरण है, जबकि मिश्र मोह हल्के रंगीन कांच का और मिथ्यात्व मोह गहरे रंग के कांच का आवरण है । पहले में सत्य के स्वरूप का दर्शन वास्तविक रूप में होता है, दूसरे में विकृत रूप में होता है, लेकिन तीसरे में सत्य पूरी तरह आवरित रहता है । सम्यग्दर्शन के काल में भी आत्मा गुण संक्रमण नामक क्रिया करता है और मिथ्यामोह की कर्मप्रकृतियों को मिश्रमोह तथा सम्यक्त्वमोह में रूपान्तरित करता रहता हैं । सम्यग्दर्शन में उदयकाल की एक अन्तमूहूर्त की समय-सीमा समाप्त होने पर पुनः Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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