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आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास
आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास का प्रत्यय भी उतना ही महत्त्वपूर्ण है, जितनी महत्त्वपूर्ण पूर्णता की धारणा है । जैन, बौद्ध और गीता के आचार दर्शनों में आध्यात्मिक एवं नैतिक विकास के विभिन्न स्तरों का विवेचन हुआ है । यहाँ यह स्मरण रखना होगा कि इन विभिन्न स्तरों का विवेचन व्यवहार दृष्टि से ही किया गया है । पारमार्थिक ( तत्त्व ) की दृष्टि से तो परमतत्त्व या आत्मा सदैव ही अविकारी है। उसमें विकास की कोई प्रक्रिया होती ही नहीं है। वह तो बन्धन और मुक्ति, विकास और पतन से परे या निरपेक्ष है । आचार्य कुंदकुंद कहते हैं-आत्मा गुणस्थान, मार्गणास्थान और जीवस्थान नामक विकासपतन की प्रक्रियाओं से भिन्न है।' इसी बात का समर्थन प्रोफेसर रमाकांत त्रिपाठी ने अपनी पुस्तक स्पीनोज़ा इन दि लाइट ऑफ वेदान्त में किया है । स्पीनोज़ा के अनुसार आध्यात्मिक मूल तत्त्व न तो विकास की स्थिति में है और न प्रयास की स्थिति में है। लेकिन जैन-विचारणा में तो व्यवहार-दृष्टि भी उतनी ही यथार्थ है जितनी कि परमार्थ या निश्चयदृष्टि, जब समस्त आचार-दर्शन ही व्यवहारनय का विषय है तब नैतिक विकास की प्रक्रियाएँ भी व्यवहारनय (पर्यायदृष्टि) का ही विषय होंगी; लेकिन इससे उसकी यथार्थता की कोई कमी नहीं होती है। आत्मा को तीन अवस्थाएं
जैन आचारदर्शन में आध्यात्मिक पूर्णता अर्थात् मोक्ष की प्राप्ति ही साधन का लक्ष्य माना गया है । इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए साधक को साधना की विभिन्न श्रेणियों में से गुजरना होता है । ये श्रेणियाँ साधक की साधना की ऊँचाइयों की मापक हैं । लेकिन विकास तो एक मध्य अवस्था है। उसके एक ओर अविकास की अवस्था है और दूसरी ओर पूर्णता की अवस्था है। इसी तथ्य को ध्यान में रखते हुए जैनाचार्यों ने आत्मा की तीन अवस्थाओं का विवेचन किया है-१. बहिरात्मा, २. अन्तरात्मा और ३. परमात्मा ।
१. नियमसार, ७७। २. स्पीनोजा इन दि लाइट ऑफ वेदान्त, १० ३८ टिप्पणी, १९९, २०४ । ३. (अ) अध्यात्ममत परीक्षा, गा० १२५ ।
( ब ) योगावतार, द्वात्रिंशिका, १७-१८ । (स) मोक्खपाहुड, ४ ।
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