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माध्यात्मिक एवं नैतिक विकास
आत्मा के इन तीन प्रकारों की चर्चा जैन साहित्य में प्राचीनकाल से उपलब्ध है। सर्वप्रथम हमें आचार्य कुन्दकुन्द के मोक्षप्राभृत ( मोक्खपाहुड़ ) में आत्मा की तीन अवस्थाओं की स्पष्ट चर्चा उपलब्ध होती है । यद्यपि इसके बीज हमें आचारांग जैसे प्राचीनतम आगम में भी उपलब्ध होते हैं । आचारांग में यद्यपि स्पष्ट रूप से बहिरात्मा, अन्तरात्मा जैसे शब्दों का प्रयोग नहीं है किन्तु उसमें इन तीनों ही प्रकार के आत्माओं के लक्षणों का विवेचन उपलब्ध हो जाता है ।' बहिर्मुखी आत्मा को आचारांग में बाल, मन्द और मढ़ के नाम से अभिहित किया गया है। ये आत्माएँ ममत्व से युक्त होती हैं और बाह्य विषयों में रस लेती हैं । अन्तर्मुखी आत्मा को पण्डित, मेधावी, धीर, सम्यक्त्वदर्शी और अनन्यदर्शी के नाम से चित्रित किया गया है। अनन्यदर्शी शब्द ही उनकी अन्तर्मुखता को स्पष्ट कर देता है। इनके लिए मुनि शब्द का प्रयोग भी हुआ है । आचारांग के अनुसार ये वे लोग हैं जिन्होंने संसार के स्वरूप को जानकर लोकेषणा का त्याग कर दिया है। पापविरत एवं सम्यक्दर्शी होना ही अन्तरात्मा का लक्षण है । इसी प्रकार आचारांग में मुक्त आत्मा के स्वरूप का विवेचन भी उपलब्ध होता है । उसे विमुक्त, पारगामी तथा तर्क और वाणी से अगम्य बताया गया है ।
आत्मा के इस त्रिविध वर्गीकरण का प्रमुख श्रेय तो आचार्य कुन्दकुन्द को ही जाता है। परवर्ती सभी दिगम्बर और श्वेताम्बर आचार्यों ने इन्हीं का अनुकरण किया है। कार्तिकेय, पूज्यपाद, योगीन्दु, हरिभद्र, आनन्दघन और यशोविजय आदि सभी ने अपनी रचनाओं में आत्मा के उपर्युक्त तीन प्रकारों का उल्लेख किया है-२
१. बहिरात्मा-जैनाचार्यों ने उस आत्मा को बहिरात्मा कहा है, जो सांसारिक विषय-भोगों में रुचि रखता है। परपदार्थों में अपनत्व का आरोपण कर उनके भोगों में आसक्त बना रहता है । बहिरात्मा देहात्म बुद्धि और मिथ्यात्व से युक्त होता है।' यह चेतना की विषयाभिमुखी प्रवृत्ति है।
२. अन्तरात्मा-बाह्य विषयों से विमुख होकर अपने अन्तर में झांकना अन्तरात्मा का लक्षण है। अन्तरात्मा आत्माभिमुख होता है एवं स्व-स्वरूप में निमग्न रहता है । यह ज्ञाता-द्रष्टा भाव की स्थिति है । अन्तर्मुखी आत्मा देहात्म बुद्धि से रहित होता है क्योंकि वह आत्मा और शरीर अर्थात् स्व और पर की भिन्नता को भेदविज्ञान के द्वारा जान लेता है। अन्तरात्मा के भी तीन भेद किये गये हैं । अविरत सम्यक्दृष्टि सबसे निम्न प्रकार का अन्तरात्मा है। देशविरत गृहस्थ, उपासक और प्रमत्त मुनि मध्यम प्रकार के अन्तरात्मा हैं और अप्रमत्त योगी या मुनि उत्तम प्रकार के अन्तरात्मा हैं। १. देखिए-आचारांग प्रथम श्रुतस्कन्ध अध्ययन, ३-५। २. मोक्खपाहुड, ४ । ३. मोक्खपाहुड, ५, ८, १०, ११ ।
४. वही, ५, ९।।
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