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जैन आचार के सामान्य नियम
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जीवन्मुक्त ( सिद्ध) के लिए आवश्यक नहीं है । जीवन्मुक्त को तो समाधि-मरण सहज ही प्राप्त होता है । जहाँ तक उनके इस आक्षेप की बात है कि समाधि-मरण में यथार्थता की अपेक्षा आडम्बर ही अधिक परिलक्षित होता है, उसमें आंशिक सत्यता अवश्य हो सकती है लेकिन इसका सम्बन्ध संथारे या समाधि-मरण के सिद्धान्त से नहीं, वरन् उसके वर्तमान में प्रचलित विकृत रूप से है, लेकिन इस आधार पर उसके सैद्धान्तिक मूल्य में कोई कमी नहीं आती है । यदि व्यावहारिक जीवन में बोलते हैं तो क्या उससे सत्य के मूल्य पर कोई आँच आती है ? के सैद्धान्तिक मूल्य को अस्वीकार नहीं किया जा सकता ।
स्वेच्छा-मरण तो मृत्यु की वह कला है, जिसमें न केवल जीवन ही सार्थक होता है, वरन् मरण भी सार्थक हो जाता है । काका साहब कालेलकर ने खलील जिब्रान का यह वचन उद्धृत किया है कि 'एक आदमी ने आत्मरक्षा के हेतु खुदकुशी की, आत्महत्या की,' यह वचन सुनने में विचित्र-सा लगता है । आत्महत्या से आत्मरक्षा का क्या संबंध हो सकता है ? वस्तुत: यहाँ आत्मरक्षा का अर्थ आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों का संरक्षण है और आत्महत्या का मतलब है शरीर का विसर्जन । जब नैतिक एवं आध्यात्मिक मूल्यों के संरक्षण के लिए शारीरिक मूल्यों का विसर्जन आवश्यक हो, तो उस स्थिति में देह - विसर्जन या स्वेच्छा मृत्यु वरण ही उचित है । आध्यात्मिक मूल्यों की रक्षा प्राण-रक्षा से श्रेष्ठ है । गीता ने स्वयं अकीर्तिकर जीवन की अपेक्षा मरण को श्रेष्ठ मानकर ऐसा ही संकेत दिया है । काका साहब कालेलकर के शब्दों में जब मनुष्य देखता है कि विशिष्ट परिस्थिति में जीना है तो हीन स्थिति और हीन विचार या सिद्धान्त मान्य रखना ही जरूरी है । तब श्रेष्ठ पुरुष कहता है कि जीने से नहीं, मरकर ही आत्मरक्षा होती है ।
वस्तुतः समाधि-मरण का व्रत हमारे आध्यात्मिक एवं नैतिक मूल्यों के संरक्षण के लिए ही लिया जाता है और इसलिए पूर्णतः नैतिक भी है ।
१. परमसखा मृत्यु, पृ० ४३ । ३. परमसखा मृत्यु, पृ० ४३ ।
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अनेक व्यक्ति असत्य वस्तुतः स्वेच्छा-मरण
२. गीता, २।३४ ।
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