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जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
मृत्यु की विषम परिस्थिति में समत्व की साधना के द्वारा निर्वाण का अमृत पान कराया वही साधक स्वयं की मृत्यु के अवसर पर क्रोध के वशीभूत हो किस प्रकार अपने साधना पथ से विचलित हो गया। वैदिक परम्परा में जड़भरत का कथानक भी यही बताता है कि इतने महान् साधक को भी मरण वेला में हरिण पर आसक्ति रखने के कारण पशु-योनि में जाना पड़ा । ये कथानक हमारे सामने मृत्यु का मूल्य उपस्थित कर देते हैं । मृत्यु जीवन की साधना का परीक्षाकाल है। इस जीवन में लक्षोपलब्धि का अन्तिम अवसर और भावी जीवन की साधना का आरम्भ बिन्दु है । इस प्रकार वह अपने में दो जीवनों का मूल्य संजोए हुए है। मरण जीवन का अवश्यम्भावी अंग है। उसकी अवहेलना नहीं की जा सकती। वह जीवन का उपसंहार है, जिसे सुन्दर बनाना एक आवश्यक कर्तव्य है।
इस प्रकार हम देखते हैं कि सम्प्रति युग के प्रबुद्ध विचारक भी समाधिमरण को अनैतिक नहीं मानते हैं। अतः जैन धर्म पर लगाया जाने वाला यह आक्षेप कि वह जीवन के मूल्य को अस्वीकार करता है, उचित नहीं है। वस्तुतः समाधिमरण पर जो आक्षेप लगाये जाते हैं उनका सम्बन्ध समाधि-मरण से न होकर आत्महत्या से है । कुछ विचारकों ने समाधि-मरण और आत्महत्या के वास्तविक अन्तर को नहीं समझा और इसी आधार पर समाधि-मरण को अनैतिक कहने का प्रयास किया, लेकिन समाधिमरण या स्वेच्छा-मरण आत्महत्या नहीं है और इसलिए उसे अनैतिक भी नहीं कह सकते । जैन आचार्यों ने स्वयं ही आत्महत्या को अनैतिक माना है लेकिन उनके अनुसार आत्महत्या समाधि-मरण से भिन्न है ।
डॉ० ईश्वरचन्द्र ने जीवन्मुक्त व्यक्ति के स्वेच्छा-मरण को तो आत्महत्या नहीं माना है, लेकिन उन्होंने संथारे को आत्महत्या की कोटि में रखकर उसे अनैतिक भी बताया है।' इस सम्बन्ध में उनके तर्क का पहला भाग यह है कि स्वेच्छा-मरण का व्रत लेने वाले सामान्य जैन मुनि जीवन्मुक्त एवं अलौकिक शक्ति से युक्त नहीं होते और अपूर्णता की दशा में लिया गया आमरण व्रत (संथारा) नैतिक नहीं हो सकता। अपने तर्क के दूसरे भाग में वे कहते हैं कि जैन-परम्परा में स्वेच्छा मृत्यु-वरण (संथारा) करने में यथार्थता की अपेक्षा आडम्बर अधिक होता है, इसलिए वह अनैतिक भी है। जहाँ तक उनके इस दृष्टिकोण का प्रश्न है कि जीवन्मुक्त एवं अलौकिक शक्ति-सम्पन्न व्यक्ति ही स्वेच्छा-मरण का अधिकारी है, हम सहमत नहीं हैं। वस्तुतः स्वेच्छा-मरण उस व्यक्ति के लिए आवश्यक नहीं है जो जीवन्मुक्त है और जिसकी देहासक्ति समाप्त हो गयी है, वरन् उस व्यक्ति के लिए है जिसमें देहासक्ति शेष है, क्योंकि समाधि-मरण तो इसी देहासक्ति को समाप्त करने के लिए है। समाधि-मरण एक साधना है, इसलिए वह
१. पश्चिमीय आचार विज्ञान का आलोचनात्मक अध्ययन, पृ० २७३ ।
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