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________________ ४:३६ जैन, बौद्ध तथा गीता के आचारदर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन सक्त जीवन शैली की यही महत्त्वपूर्ण कसोटी है । जो साधक मृत्यु से भागता है वह सच्चे अर्थ में अनासक्त जीवन जीने की कला से अनभिज्ञ है । जिसे अनासक्त मृत्यु की कला नहीं आती, उसे अनासक्त जीवन की कला भी नहीं आ सकती । इसी अनासक्त मृत्यु की कला को संलेखना व्रत कहा गया है । जैन परम्परा में संथारा, संलेखना, समाधि-मरण, पण्डित-मरण और सकाम-मरण' आदि स्वेच्छापूर्वक मृत्यु-वरण के ही पर्यायवाची नाम हैं । आचार्य समन्तभद्र संलेखना की परिभाषा करते हुए लिखते हैं कि आपत्तियों, अकालों, अतिवृद्धावस्था एवं असाध्य रोगों में शरीर त्याग करना संलेखना है । अर्थात् जब मृत्यु अनिवार्य सी हो गयी हो उन स्थितियों में निर्भय होकर देहासक्ति का विसर्जन कर मृत्यु का स्वागत करना ही संलेखना - व्रत है । समाधि-मरण के भेद • जैनागमों में मृत्यु वरण के अवसरों की अपेक्षा के आधार पर समाधि-मरण के दो प्रकार कहे गये हैं - १. सागारी संथारा और २. सामान्य संथारा । सागारी संथारा - अकस्मात् जब कोई ऐसी विपत्ति उपस्थित हो जाय कि जिसमें जाना, जल में डूबने जैसी व्यक्ति के अधिकार में फँस संकटपूर्ण अवसरों पर जो यदि व्यक्ति उस विपत्ति से जीवित बच निकलना सम्भव न हो, जैसे आग में घिर स्थिति हो जाना अथवा हिंसक पशु या किसी ऐसे दुष्ट जाना जहाँ सदाचार से पतित होने की संभावना हो। ऐसे संथारा ग्रहण किया जाता है उसे सागारी संथारा कहते हैं । या संकटपूर्ण स्थिति से बाहर हो जाता है तो वह पुनः देहरक्षण क्रम को चालू रख सकता है । सागारी संथारा मृत्यु पर्यन्त के स्थिति-विशेष के लिए होता है, अतः परिस्थिति विशेष की मर्यादा भी समाप्त हो जाती है । सामान्य संथारा --- जब स्वाभाविक जरावस्था अथवा असाध्य रोग के कारण पुनः स्वस्थ होकर जीवित रहने की समस्त आशाएँ धूमिल हो गयी हों, तब यावज्जीवन तक जो देहासक्ति एवं शरीर-पोषण के प्रयत्नों का त्याग किया जाता है वह सामान्य संथारा है । यह यावज्जीवन के लिए होता है अर्थात् देहपात पर ही पूर्ण होता है । सामान्य संथारा ग्रहण करने के लिए जैनागमों में निम्न स्थितियाँ आवश्यक मानी गयी हैं— जब सभी इन्द्रियाँ अपने कार्यों का सम्पादन करने में अक्षम हो गयी हों, जब शरीर सूख कर अस्थिपंजर रह गया हो, पचन-पाचन, आहार-विहार आदि शारीरिक क्रियाएँ शिथिल हो गयी हों और इनके कारण साधना और संयम का परिपालन सम्यक् रीति से होना सम्भव न रहा हो, तभी अर्थात् मृत्यु के उपस्थित हो जाने पर ही सामान्य संथारा १. रत्नकरण्डकं श्रावकाचार, अध्याय ५ । २. सकाम का अर्थ स्वेच्छापूर्वक है, न कि कामवासनायुक्त । Jain Education International तथा जीवन के सामान्य लिए नहीं, वरन् परिसमाप्त हो जाने पर उस व्रत For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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