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________________ प्रेम भाचार के सामान्य नियम शत्रु विहिंसा है । अज्ञानयुक्त उपेक्षा माध्यस्थ भावना का निकटवर्ती शत्रु है जबकि राग और द्वेष, उसके दूरवर्ती शत्रु हैं। वैदिक परम्परा में चार भावनाएँ-पातंजल योगसूत्र में भी इन्हीं चार भावनाओं का उल्लेख है।' उनके अनुसार उपर्युक्त चारों भावनाओं का तात्पर्य वही है जो कि जैनपरम्परा में वर्णित है। यह तो स्पष्ट ही है कि जैन, बौद्ध और वैदिक परम्पराएँ इन भावनाओं के विवेचन में अति निकट हैं । तीनों ही परम्पराओं का यह साम्य पारस्परिक निकटता का परिचायक है । समाधि-मरण ( संलेखना) जैन-परम्परा के सामान्य आचार-नियमों में संलेखना या संथारा ( स्वेच्छापूर्वक मृत्यु-वरण ) एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है । जैन गृहस्थ उपासकों एवं श्रमण साधकों, दोनों के लिए स्वेच्छापूर्वक मृत्यु-वरण का विधान जैन आगमों में उपलब्ध है । जैनागम-साहित्य ऐसे साधकों की जीवन-गाथाओं से भरा पड़ा है, जिन्होंने स्वेच्छया मरण का व्रत अंगीकार किया था । अन्तकृतदशांग एवं अनुत्तरोपपातिक सूत्रों में उन श्रमण साधकों का और उपासक दशांगसूत्र में आनन्द आदि उन गृहस्थ साधकों का जीवन-दर्शन वणित है, जिन्होंने जीवन की सांध्य-वेला में स्वेच्छा-मरण का व्रत स्वीकारा था। उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार मृत्यु के दो रूप हैं- १. स्वेच्छा-मरण या निर्भयतापूर्वक मृत्युवरण और २. अनिच्छापूर्वक या भयपूर्वक मृत्यु से ग्रसित होना । स्वेच्छा-मरण में मनुष्य का मृत्यु पर शासन होता है, जबकि अनिच्छापूर्वक मरण में मृत्यु मनुष्य पर शासन करती है। पहले को पण्डितमरण या समाधिमरण भी कहा गया है और दूसरे को बाल (अज्ञानी) मरण या असमाधिमरण कहा गया है । एक ज्ञानीजन की मौत है और दूसरी अज्ञानीकी, अज्ञानी विषयासक्त होता है और इसलिए वह बार-बार मरता है, जबकि यथार्थ ज्ञानी अनासक्त होता है इसलिए वह एक ही बार मरता है । जो मृत्यु से भय खाता है, उससे बचने के लिए भागा-भागा फिरता है, मृत्यु भी उसका बराबर पीछा करती रहती है, लेकिन जो निर्भय होकर मृत्यु का स्वागत करता है और उसका आलिगन करता है, मृत्यु भी उसका पीछा नहीं करती । जो मृत्यु से भय खाता है वही मृत्यु का शिकार होता है, लेकिन जो मृत्यु से निर्भय हो जाता है वह अमरता की दिशा में आगे बढ़ जाता है । साधकों के प्रति महावीर का सन्देश यही था कि मृत्यु के उपस्थित होने पर शरीरादि से अनासक्त होकर उसका आलिंगन करो । महावीर के दर्शन में अना १. पातंजल योगसूत्र, १।३३ । ३. वही, ५।३। २. उत्तराध्ययन, ५४२ । ४. ब्रही, ५॥३२॥ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
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