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जैन, बौद्ध तथा गीता के आधारवर्शनों का तुलनात्मक अध्ययन
होना ही करुणा भावना है।' यही परदुःखकातरता है। दूसरे के दुःख को देखकर हृदय का द्रवित हो जाना यही करुणा है। करुणा से हिंसक वृत्ति का उपशम होता है और अहिंसक वृत्ति का उदय होता है । खेदज्ञता करुणा का लक्षण है। जैन दर्शन के अहिंसासिद्धान्त का आधार यही करुणा है। करुणा अहिंसा से अधिक व्यापक है। करुणा से संयोजित होकर ही अहिंसा विधायक एवं पूर्ण बनती है।
४ माध्यस्थ (उपेक्षा)-दूसरों के दोषों की उपेक्षा करना माध्यस्थ भावना है। क्रूर कर्म करने वाले, देव और गुरु के निन्दक, आत्मप्रशंसा में रत मनुष्यों के प्रति किसी भी प्रकार का दुर्विचार न लाते हुए समभाव रखना ही माध्यस्थ भावना है। माध्यस्थ भावना राग-द्वेष से ऊपर उठने के लिए है।
बोद्ध-परम्परा में चार भावनाएं-बौद्ध-परम्परा में मैत्री, प्रमोद (मुदिता), करुणा और उपेक्षा (माध्यस्थ) भावना का सविस्तार विवेचन उपलब्ध है। बुद्ध ने इन्हें 'ब्रह्म विहार' कहा है । ये चारों भावनाएँ चित्त की सर्वोत्कृष्ट और दिव्य अवस्थाएँ हैं, चित्तविशुद्धि का उत्तम साधन है। जो इनकी भावना करता है, वह सद्गति अथवा निर्वाण प्राप्त करता है। महायान-सम्प्रदाय में इनके विषय में जैन-दर्शन की अपेक्षा काफी गहराई से विचार हुआ है। इन भावनाओं का सर्वोच्च विकास आचार्य शान्तिदेव के बोधिचर्यावतार में मिलता है। प्रत्येक भावना की साधना में कितनी सजगता की आवश्यकता है, इसका भी बौद्ध दार्शनिकों ने प्रतिपादन किया है । प्रत्येक भावना के दो शत्रु माने गये हैं-१. समीपवर्ती और २. दूरवर्ती । निकटवर्ती शत्रु छद्मरूप में उस भावना के समान ही प्रतीत होते हैं, जैसे राग और मैत्री; करुणा और शोक । इन भावनाओं की साधना करते समय ये शत्रु साधक के चित्त पर बिना पता चले ही अधिकार कर लेते हैं, अतः इनसे विशेष सतर्क रहने की आवश्यकता है। दूरवर्ती शत्रु उस भावना के विरोधी होते हैं । दोनों ही शत्रुओं से भावनाओं की रक्षा करनी चाहिए। मैत्रीभावना का निकटवर्ती शत्रु राग है, क्योंकि यह मैत्री के समान है जबकि द्वष उसका दूरवर्ती शत्रु है । प्रमोद भावना का निकटतम शत्रु सौमनस्यता या रति है । संसार के प्राणियों की सुख-सुविधाओं को देखकर जैसे प्रमोद होता है, वैसे ही उनमें रति भी उत्पन्न हो सकती है, अतः प्रमोद भावना के समय यह सावधानी रखनी होती है, प्रमोद के होते हुए रति (प्रीति) न हो । अरति या अप्रीति प्रमोद का दूरवर्ती शत्रु है । करुणा का निकटवर्ती शत्रु शोक है, क्योंकि जिनके दुःखों को देखकर चित्त में करुणा का उदय होता है, उनके सम्बन्ध में तद्विषयक शोक भी हो सकता है । करुणा का दूरवर्ती
१. योगशास्त्र, १।१२० । ३. योगशास्त्र, ४।१२१ ।
२. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ४, पृ० २६७२ । ५. संयुत्तनिकाय, ३५१७ तथा ४०८ ।
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