SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 472
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ जैन आचार के सामान्य नियम चार भावनाएं प्रकारान्तर से जैन-परम्परा में चार भावनाओं का विवेचन भी उपलब्ध है। आचार्य उमास्वाति ने तत्त्वार्थसूत्र में', आचार्य हरिभद्र ने योगशतक में, आचार्य अमितगति ने सामायिक पाठ में तथा आचार्य हेमचन्द्र ने योगशास्त्र में (१) मैत्री, (२) प्रमोद, (३) कारुण्य और (४) माध्यस्थ, इन चार भावनाओं का उल्लेख किया है । मूल आगमों में भी इन भावनाओं के विचार बिखरे हुए हैं । परवर्ती जैन आचार्यों ने भी इनका सविस्तार विवेचन किया है। १. मैत्री भावना-मैत्री भावना पर-हित चिन्ता के रूप में है। अन्य प्राणियों के कल्याण की चिन्ता करना ही मैत्री भावना है। कोई भी प्राणी दुःख का भाजन न बने, समस्त प्राणी दुःख से मुक्त हो जायें इस प्रकार चिन्ता करना मैत्री भावना है। मैत्री भावना अद्वेष की भावना है । सम्यक् रूप से इसको भावना करने पर द्वेष का उपशम होता है । यह वैर को उपशांत करने का उपाय है। मैत्री भावना से वैमनस्य और शत्रुता समाप्त होती है । साधक प्रतिदिन यही उद्घोष करता है कि सभी प्राणियों से मेरी मित्रता है, किसी से मेरा वैर नहीं है। २.प्रमोद-दूसरों की प्रसन्नता में स्वयं को प्रसन्न मानना यह मुदिता या प्रमोद भावना है । आचार्य हेमचन्द्र तथा आचार्य अमितगति के अनुसार प्रमोद भावना का तात्पर्य गुणीजनों के प्रति आदरभाव, उनकी प्रशंसा और उनको देखकर मन में प्रसन्नता का होना है। प्रमोदभावना का अर्थ है दूसरे के सुख अथवा दूसरों की उन्नति को देखकर मन में प्रसन्न भाव का आना ।' प्रमोद भावना से साधक ईर्ष्या, असूया या अप्रोति से दूर होता है और अरति का उपशम होता है । प्रमोद भावना जन्य हर्ष साधारण जन को होने वाले हर्ष से भिन्न होता है । यह हर्ष प्रशान्त होता है, उसमें मन साम्यावस्था में रहता है, जबकि सामान्य हर्ष उद्वेग या क्षोभयुक्त होता है । उद्वेगयुक्त हर्ष से तो उल्टे यह भावना नष्ट होती है । ३.करणा-दूसरों के दुःख दूर करने का विचार ही करुणा है।१°दीन, दुःखी, भयभीत और प्राणों की याचना करने वाले प्राणियों के दुःखों को दूर करने का विचार उत्पन्न १. तत्त्वार्थसूत्र, ७।६ । २. योगशतक, ७९ । ३. सामायिक पाठ, १ । ४. योगशास्त्र, ४।११७ । ५. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड ४, ५० २६७२ । ६. योगशास्त्र, ४।११८ । ७. प्रतिक्रमण सूत्र-क्षमापणा पाठ-तुलनीय-खुद्दक पाठ, मैतसुत्त, १ । ८. अभिधान राजेन्द्र , खण्ड ४, पृ० २६७२ । ९. योगशास्त्र, ४।११९ । १०. अभिधान राजेन्द्र, खण्ड४ ,पृ० २६७२ । २८ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.001675
Book TitleJain Bauddh aur Gita ke Achar Darshano ka Tulnatmak Adhyayana Part 2
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSagarmal Jain
PublisherRajasthan Prakrit Bharti Sansthan Jaipur
Publication Year1982
Total Pages562
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari, Religion, & Philosophy
File Size10 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy